शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

कहा बंधन कहा मुक्ति?

ज्ञान केवल अज्ञान का अंत है।
अध्यात्म में अज्ञान केवल परिवर्तन से आसक्ति (बंधन) है।
अध्यात्म मे अज्ञान का अंत, आत्मबोध है। 
आत्मबोध का उदय, चेतना का उदय है।
ज्ञान द्वारा अज्ञान को दूर करने वाली वृत्ति को चेतना कहते हैं। 
चेतना का उपहार है– आत्मज्ञान की स्थिरता।

आप कितने होश/साक्षी में जीवन जीते हैं इसी से पता चलता है कि आप मुक्त हैं या बंधन में। बंधन में ही दुख है। 

संसार(व्यक्ति, समय, स्थान) में कुछ बदलने की कोशिश है – बंधन है।
कुछ पाने, खोने को है – बंधन है।
कर्म से/में भय है– बंधन है।
हर पल इच्छा आती, जाती रहती है– बंधन है।

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

आत्म ज्ञान से कर्म निवृत्ति


           व्यक्ति को प्रकृति से उपहार स्वरूप अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इन गुणों को उपयोग कर कर्म करना होता है। कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। ना चाहने पर भी अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
यह अनुभवकर्ता का स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है। सदैव अनुभव को देखने में लगा है। अतः आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए खुद(मन) को अच्छे अनुभवों (सत्कर्म) में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा। माया के संसर्ग में आकर भौतिक जगत से जुड़ाव प्राप्त कर लेता है और इससे उत्पन्न सूख दुःख को भोगने वाला बन जाता है। किन्तु यदि आत्म स्वरूप, आनंद से उत्पन्न अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

           "यदि कोई आत्म ज्ञानी शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी। किन्तु यदि कोई शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और आत्म ज्ञान न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?" संन्यास या कोई भी पद्धति आत्म ज्ञान के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है।

            मान लो कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं, जो चेतना में कार्य तो नहीं करते, किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं।

              आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है, वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है, जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।

             अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

जैसी मति वैसी गति (मनन)

         इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।

           मनुष्य में इन्द्रियविषयों के चिन्तन से भौतिक इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए और यदि वे आत्म आनंद में नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी। इस भौतिक जगत् में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है। इस संसार के जंजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है- अपने चेतन स्वरूप में स्थिर होना। यह भी ध्यान रखें कि कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, अन्त में अवश्य असफल होगा, क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।

          क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य संसार में पुनः गिर जाता है।

          चेतना के विकास से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग आत्म कल्याण के लिए किया जा सकता है। जो आत्म स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं, वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से बचने का प्रयास करते हैं, फलतः वे बन्धन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते। इसके विपरीत ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग निस्काम भाव से किस प्रकार किया जाय तब वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता। 

           समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति आत्म आनंद प्राप्त कर सकता है। यद्यपि ज्ञानी व्यक्ति ऊपर से विषयी स्तर पर क्यों न दिखे, किन्तु चेतना होने से वह विषय-कर्मों में आसक्त नहीं होता। उसका एकमात्र उद्देश्य तो चेतना से परमानंद में रहना है। अतः वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है। 

          प्रकृति/ ब्रह्म की इच्छा होने पर ज्ञानी सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु यदि प्रकृति/ ब्रह्म की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा, जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो। अतः कर्म करना या न करना उसके वश में रहता है।

यही है सबसे अहम सूत्र: जैसी मति वैसी गति। 
अपने चिंतन की दिशा पर हमेशा ध्यान रखें
🙏

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

🌼 बोध और चेतना 🌼

              अब तक हमने जाना की आनंद ही जीवन की सबसे बड़ी चाह है। इस चाह की पूर्ति आत्म ज्ञान से ही संभव है। चेतना आत्मा का लक्षण है। चेतना को विकसित करना ज्ञान मार्गी का लक्ष्य है। अब हम देख सकते है कि उन्नति कितनी हुई है। इसके लिए हमे इन सरल सवालो को जांचना है। ऐसा ही सवाल अर्जुन ने गीता में भगवान श्री कृष्ण से पूछा था।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४॥ (भगवतगीता)

          अर्जुन ने पूछा- हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है ?

               जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के उसकी विशिष्ट स्थिति के अनुसार कुछ लक्षण होते हैं उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष का भी विशिष्ट स्वभाव होता है यथा उसका बोलना, चलना, सोचना आदि। जिस प्रकार धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते हैं, जिनसे वह धनवान जाना जाता है, जिस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना जाता है या कि विद्वान् अपने गुणों से विद्वान् जाना जाता है, उसी तरह आत्म की दिव्य चेतना से युक्त व्यक्ति अपने विशिष्ट लक्षणों से जाना जा सकता है। इन लक्षणों में सबसे महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञानी व्यक्ति किस तरह बोलता है, क्योंकि वाणी ही किसी मनुष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है। कहा जाता है कि मूर्ख का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं। एक बने-ठने मूर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जब तक वह बोले नहीं, किन्तु बोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। चेतना युक्त व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल सत्य तथा उन्हीं से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है। फिर तो अन्य लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं। 

                 जो मनुष्य चेतना में होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाये जाते हैं, किन्तु जो व्यक्ति चेतना में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने चित्तवृत्ति पर ही आश्रित रहता है। व्यक्ति को चित्तवृत्ति द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है। कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं। किन्तु यदि कोई ज्ञान मार्ग से चेतना जागृति में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएँ स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं। अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के चेतना की ओर चलना होगा। अत्यधिक उन्नत जीव (मुनि) अपने में आत्मतुष्ट रहता है। ऐसे आध्यात्मिक पुरुष (मुनि) के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय-वासना फटक नहीं पाती। वह अपने सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है।

                मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिन्तन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे, किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके। कहा जाता है कि प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब तक एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता। स्थितधी: मुनि सदैव चेतना में रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिन्तन पूरा कर चुका होता है। जिसने शुष्कचिन्तन की अवस्था पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि आत्म, ब्रह्म ज्ञान ही सब कुछ हैं वह स्थिरचित्त मुनि कहलाता हैवह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी ऐंद्रिय आसक्ति का अभाव। 

               भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से अप्रभावित रहता है उसे चेतना में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंद्वों) से पूर्ण है। किन्तु जो चेतना में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार अपने आत्म आनंद से रहता है। इस प्रकार मनुष्य ऐसी चेतना पूर्ण स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं।

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

💮 चेतना मुक्ति द्वार 💮

               कोई जीव माता के गर्भ से जन्म लेता है। फिर बालक रूप में रहता है, फिर युवान और फिर धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त जाता है । इस काल– क्रम से हम सभी परिचित हैं। यह जानकर भी मनुष्य अपने सीमित समय का उपयोग अपने उत्थान के लिए नहीं करता – यह महा आश्चर्य है !!
 
               मनुष्य अपने शरीर को ही सत्य मानकर, मान- अपमान, दुख-सुख, जन्म - मृत्यु के भय से आक्रत रहता है। शरीर तो परिवर्तनशील है ऐसा हमने पहले जाना है, परंतु उसके अनुभव की शक्ति तो शरीर की स्थितियों के साथ नहीं बदलती, वह तो एक सी ही रहती है। अतः यह भी स्पष्ट है कि वह शरीर से अलग कुछ अपरिर्वतनशील शक्ति भी है। इस अपरिर्वतनशील शक्ति को हम अपना मूल तत्व कहते हैं - अनुभवकर्ता /आत्मा कहते हैं।

               यह अनुभवकर्ता शरीर के, मन के सभी प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है। सभी प्रकार से जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त है। इसकी उपस्थिति को जानने वाला सदा मुक्त और शांत है। 

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 

(श्लोक २० गीता)

            मैं/ अनुभवकर्ता/ आत्मा – के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |

              अनुभवकर्ता/आत्मा का यह ज्ञान चेतना से उपलब्ध होता है। चेतना ही आत्मा / अनुभवकर्ता का लक्षण है। चेतना को जगाना ही एक ज्ञानमार्गी का लक्ष्य है। यदि कोई आत्मतत्व को न खोज पाता है तब भी वह आत्मा/ अनुभवकर्ता की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। जैसे कभी कभी बादल आकाश में सूर्य को छुपा देते हैं, परन्तु सूर्य तो सदा आकाश में रहता ही है। बादलों के हट जाने पर यह प्रमाणित हो जाता है।

             ज्ञानमार्ग में हम यह ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और चेतना के विकास को प्राथमिकता देते हैं। जब चेतना सक्रिय होती है तो अनुभवकर्ता की उपस्थिति जान लेते हैं। यहां समस्या यही है की मनुष्य की चेतना विस्मरणशील है, इस कारण जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। तो उसके कल्याण के लिए गुरु ज्ञान प्रकट होता है, "गुरु" के उपदेशो से आत्म–कल्याण की शिक्षा और बोध प्राप्त होता है। 


शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

आनंद में रहने की सरल विधि

        खेल– आनंद में रहने की सबसे सरल विधि है। आप बच्चो को देख सकते हैं, जब वो खेल में मगन होते हैं तो कैसे आनंद में रहते हैं!! खेल में मगन बच्चो को न भूख है, न ही गर्मी सर्दी। न कोई मान सम्मान न ही कोई मित्र न ही शत्रु। और आपने सुना भी होगा कि "संसार खेल मात्र है परमात्मा का"।

       अगर आपका जीवन में से ये खेल का सूत्र गायब है तो फिर आपका जीवन आपको बहुत बोझिल लगेगा, थकाने वाला लगेगा। संसार का सार केवल यहीं है कि ये सब बस माया का खेल है। अगर आप खेल को खेल ही जान कर खेल रहे हैं तो आप सदा खुश रहते हैं।

       मनुष्य की सबसे बड़ी परेशानी यही हुई है कि वो खेल को खेल नहीं बल्कि चुनौती समझ गया है, खेल में जीत और हार को मूल्य दे रहें हैं और दुख ले रहें हैं।

        गुरु की जरुरत केवल यही समझाने के लिए है कि आप थोड़ा रुक कर देख लो कि ये बस खेल है, कोई और इसका मकसद नहीं है। खेल का आनंद लो। 

छोड़ो क्या करना है आत्मा का, परमात्मा का।

पहले खुद को ठीक से जान लो। खेल को पहचान लो। और आनंद में आगे बढ़ जाओ।

रविवार, 26 सितंबर 2021

मुक्ति

        क्या है ये "मुक्ति" जो सभी मनुष्यों की प्रथम चाह है! मुक्ति की अगर चाह भी है तो फिर, ये मुक्ति कैसे मिलेगी और किस से मिलेगी ?

        पहली बात जो पक्की है, ये है कि मुक्ति जीवन से तो नहीं है। मुक्ति मिलनी तो जीवन में ही चाहिए। मिलती भी है,  तो जीवन में ही मिलती है, उससे आगे –पीछे मिलने का कोई उपाय नहीं है। तो सबसे पहले मुक्ति का प्रश्न छोड़ दो, छोड़ दो की किस दिशा में आगे जाना है, कहा मिलेगी? प्रश्न करें की बंधन कहा है, क्या है, किस से हैं? आप अपने बंधनों(दुखों) को देखना और पहचाना शुरू करो। आप का बंधन/ दुख क्या है बस उसको खोजना है, पहचानना है। अब आपके जीवन में प्रथम बार चमत्कार घटित होगा, आपके बंधन/ दुःख हल्के हो जाएंगें। 
            
                  है न आश्चर्य!!!

          जैसे ही दुख को देख लिया, जान लिया वैसे ही उसका कारण भी पता चल जाता है। अब कारण जानने के पश्चात दुख और बंधनों का निवारण किया जा सकता है। ९९% मामलों में ये सब बस जान लेने से ही मिट जाते हैं। हम जान जाते हैं, कि इन सब दुखों का कारण हम स्वयं हैं– हम ही अंधेरे में रस्सी को सांप मान कर कंप रहे हैं, जैसे ही ये देख लिया कि केवल रस्सी ही है तो फिर कैसा भय ? आप भय-मुक्त हुए।

         आप का अज्ञान/ अंधकार ही आपका बंधन है। आपके चित्त का अंधकार प्रेम ही बंधन है। आपका जन्म अंधकार में भले ही हुआ हो परंतु, जीवन में प्रकाश पाना ही आपका लक्ष्य है। सभी के जीवन का यही उद्देश्य है कि प्रकाश को पाया जाए, प्रकाश की ओर बढ़ा जाए। अज्ञान से दूरी ही ज्ञान है। अज्ञान से दूरी ही आपकी मुुक्ती है। तो फिर उठो, जागो और प्रेम से लगे रहो ज्ञान प्राप्त 
करने की ओर। याद रखिए:
        संसार(जन्म - मृत्यु) तो बस खेल है, बस खेलो,
          जीत हार की बात मत करो, बस खेलो, 
             जो बस खेलते आया है, वो बस खेलता है। 
                 खेल ही आनंद है, उत्सव है।

 आप अपने जीवन के मालिक बनो, 
 निर्भरता छोड़ो, बड़े लक्ष्य की ओर ध्यान दो।
 स्वयं का ज्ञान प्राप्त करना सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है।
 स्वयं का ज्ञान होना ही मुक्ती है।
 स्वयं का ज्ञान होना ही कर्म मुक्ति है। 
 स्वयं का ज्ञान होता ही स्वयं से मुक्ति है।



नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...