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बुधवार, 16 मार्च 2022

अद्वैत है या द्वैत है?

 आत्मा/अनुभवकर्ता/ ब्रह्म/ परमात्मा हर उपाधि का खंडन करता है। आत्मा इतनी स्वच्छंद, इतनी अनिर्वचनीय, इतनी अकल्पनीय है कि तुम उसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। तुम उसके बारे में जो कुछ भी कहोगे, वह कभी-न-कभी उल्टा जरुर जाएगा। वह किसी एक गुण से आबद्ध होता ही नहीं, उसके साथ तुम कोई एक उपाधि, विशेषण जोड़ सकते ही नहीं। 

आत्मा की इस अनिर्वचनीयता का एक परिणाम यह भी है कि तुम यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा मुक्त है, क्योंकि अगर तुमने आत्मा के लिए अगर यह भी कह दिया कि आत्मा सदैव मुक्त है, तो यह आत्मा के लिए बंधन हो गया। आत्मा कहती है, जी, यह तुमने बड़ी बंदिश लगा दी हम पर कि हमें सदा मुक्त ही रहना है। हम बादशाहों के बादशाह हैं, हम इतने बड़े बादशाह हैं कि हम कभी-भी विरासत त्याग सकते हैं, हमारी मर्ज़ी। और हम इतने ज़्यादा मुक्त हैं कि कभी-भी हम स्वेच्छा से बंधन भी चुन सकते हैं। 

यह आत्मा की अजीब कलाकारी है कि वह कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ हो जाती है और जो हो जाती है, उसका विपरीत भी हो जाती है। अगर आत्मा इतनी ही मुक्त होती कि मुक्त रहना उसके लिए एक बाध्यता हो जाती, तो फिर वह मुक्त कहाँ है? तो यह आत्मा की परम मुक्ति का सबूत है कि वह बंधन भी चुन लेती है।

अहम् और क्या है? आत्मा का चुनाव, आत्मा का खिलवाड़। आत्मा अपने ही साथ खेल रही है आँख-मिचौली। ख़ुद ही अपनी आँखें बंद कर ली हैं और ख़ुद ही से टकरा-टकराकर ठोकरें खा रही है, ख़ुद ही दु:ख भोग रही है अपनी ही तलाश में और फिर ख़ुद ही गुरु बनकर आ जाएगी अपना ही दु:ख दूर करने। ऐसी परम स्वाधीनता है उसकी।

यह बात हमारी समझ में ही नहीं आएगी, क्योंकि हम तो गुणों पर, ढर्रों पर, क़ायदों पर चलने के क़ायल हैं। इसको हम कह देते हैं, “यह बड़ा गुणवान है,” इसको हम कह देते हैं कि “यह बड़ा बेईमान है।” आत्मा ऐसी है जो निर्गुण होते हुए भी कभी गुणवान है और कभी बेईमान है। है निर्गुण, पर हर तरह के गुण दिखा देती है। 

अब तुम परेशान हो कि जब निर्गुण है, तो उसे गुण दिखाने की ज़रूरत क्या है? अरे, ज़रूरत पर तुम चलते हो, ज़रूरत पर चलना छोटे लोगों का काम है। तो दुनिया भर के हम सब छोटे लोग ज़रूरतों पर चलते हैं, आत्मा क्रीड़ा करती है। आत्मा खिलाड़ी है, आत्मा नर्तकी है। किसके ऊपर नाचती है? अपने ऊपर। किसको दिखा-दिखाकर नाचती है? ख़ुद को ही।


अब बताओ, यह अद्वैत है या द्वैत है? 



कुछ पक्का नहीं, क्योंकि दो तो हैं ही – एक द्रष्टा, एक दृश्य, पर यह भी बात पक्की है कि जो दृष्टा है, वही दृश्य है। तो अब बोलो, दो  कि एक ?

अब  "परमात्मा जब इतना दयावान, न्यायवान, कृपावान है तो दुनिया में इतना दु:ख क्यों है, मृत्यु क्यों है, अन्याय और अत्याचार क्यों है?" 

परमात्मा न दयावान है, न करुणावान है, न हैवान है, न भगवान है; परमात्मा तो निर्गुण है। चूँकि वह निर्गुण है, इसीलिए सारे गुणों का अधिकार उसमें निहित है। सारे गुणों से खेलने की लीला उसमें निहित है। सद्गुण, अपगुण, तुम्हें चाहे जो नाम देना हो गुणों को, तुम्हारी मर्ज़ी। दोष बोल दो, दुर्गुण बोल दो, वह सब कुछ हो जाता है। वह न होता, तो दोष-दुर्गुण, वृत्ति-विचार भी कहाँ से होते? 

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

💮 चेतना मुक्ति द्वार 💮

               कोई जीव माता के गर्भ से जन्म लेता है। फिर बालक रूप में रहता है, फिर युवान और फिर धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त जाता है । इस काल– क्रम से हम सभी परिचित हैं। यह जानकर भी मनुष्य अपने सीमित समय का उपयोग अपने उत्थान के लिए नहीं करता – यह महा आश्चर्य है !!
 
               मनुष्य अपने शरीर को ही सत्य मानकर, मान- अपमान, दुख-सुख, जन्म - मृत्यु के भय से आक्रत रहता है। शरीर तो परिवर्तनशील है ऐसा हमने पहले जाना है, परंतु उसके अनुभव की शक्ति तो शरीर की स्थितियों के साथ नहीं बदलती, वह तो एक सी ही रहती है। अतः यह भी स्पष्ट है कि वह शरीर से अलग कुछ अपरिर्वतनशील शक्ति भी है। इस अपरिर्वतनशील शक्ति को हम अपना मूल तत्व कहते हैं - अनुभवकर्ता /आत्मा कहते हैं।

               यह अनुभवकर्ता शरीर के, मन के सभी प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है। सभी प्रकार से जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त है। इसकी उपस्थिति को जानने वाला सदा मुक्त और शांत है। 

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 

(श्लोक २० गीता)

            मैं/ अनुभवकर्ता/ आत्मा – के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |

              अनुभवकर्ता/आत्मा का यह ज्ञान चेतना से उपलब्ध होता है। चेतना ही आत्मा / अनुभवकर्ता का लक्षण है। चेतना को जगाना ही एक ज्ञानमार्गी का लक्ष्य है। यदि कोई आत्मतत्व को न खोज पाता है तब भी वह आत्मा/ अनुभवकर्ता की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। जैसे कभी कभी बादल आकाश में सूर्य को छुपा देते हैं, परन्तु सूर्य तो सदा आकाश में रहता ही है। बादलों के हट जाने पर यह प्रमाणित हो जाता है।

             ज्ञानमार्ग में हम यह ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और चेतना के विकास को प्राथमिकता देते हैं। जब चेतना सक्रिय होती है तो अनुभवकर्ता की उपस्थिति जान लेते हैं। यहां समस्या यही है की मनुष्य की चेतना विस्मरणशील है, इस कारण जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। तो उसके कल्याण के लिए गुरु ज्ञान प्रकट होता है, "गुरु" के उपदेशो से आत्म–कल्याण की शिक्षा और बोध प्राप्त होता है। 


सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रेम गली अति साँकरी जा में दो ना समाए - भक्तिमार्ग

      भक्तिमार्ग से अद्वैत की यात्रा सबसे छोटी है। भक्तिमार्ग सर्मपण का मार्ग है। यहाँ भक्त अपने आप को मिटाकर अपने से उच्च गुणों /अवस्था वाले गुरु, ईश्वररूप (मान्य) को पूर्ण  समर्पण करता है। यहाँ खुद को मिटाने का संबंध कुछ भी घटाने से नहीं है। जैसे आपको इस संसार में भी यदि क्षणिक रूप से किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस क्षण के लिए आपका कोई और अनुभव नही होता है । आपको केवल प्रेमी / प्रमिका ही सुनाई, दिखाई और महसूस होगा | उसके गुण-दोष सारे ही समाप्त हो जाते हैं । 

     ऐसी ही स्थिती एक भक्त कि है– वह खो जाता है और स्वयं भगवान हो जाता है। परंतु आज– कल ऐसा भक्त का मिलना चमत्कार ही होगा। इस पूरी पृथ्वी पर थायद ही ऐसा कोई मिले। इस काल में जहाँ मनुष्य शंकाओं, भ्रम और अंहकार की पाठशाला में ही जन्म पाता है। वहाँ समर्पण जैसे गुण का उदय चमत्कार ही होगा। इस मार्ग में भी अधिक भटकने और धीमे विकास की बाधाएं है। भक्त की समर्पणता से उसके सारे शुभ– दोष (चित्तवृत्ति) मिट जाएगे। फिर उसकी एकता होगी स्वयं से । 

   जब ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, तब वह विरला भक्त कह पाता है - प्रेम गती अति साँकरी जा में दो ना समाए।

      भक्तिमार्ग से ज्ञानमार्ग में थोड़ा प्रयास है, ज्ञानर्माग में हम बोध के लिए साधना करते, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने शुभों- दोषों (चित्त की परतों) को शांत करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रवण मनन निधिध्यासन को अपनाते हैं। आत्मबोध प्राप्त करते हैं । आत्मज्ञान होने पर किसी ज्ञानी को भी पता चलता है कि – संसार एक महास्वप्न है और केवल दृष्टा ही सदा है, निरंतर है। 

       इस ज्ञान के साथ अब ज्ञानी में शाश्वत प्रेम और समर्पणता आती है और अब अद्वैत अवस्था की प्राप्ती होती है। जहाँ इस काल में "प्रेम" सहज नहीं है, हमें पहले ज्ञानमार्ग से बोध की प्राप्ती के लिए जाना चाहिए। क्योंकि इन सभी मार्गो की अंतिम मंजील एक ही है– स्वयं की जागृति, परमानंद अवस्था।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...