मनुष्य में इन्द्रियविषयों के चिन्तन से भौतिक इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों को किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए और यदि वे आत्म आनंद में नहीं लगी रहेंगी तो वे निश्चय ही भौतिकतावाद में लगना चाहेंगी। इस भौतिक जगत् में हर एक प्राणी इन्द्रियविषयों के अधीन है। इस संसार के जंजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है- अपने चेतन स्वरूप में स्थिर होना। यह भी ध्यान रखें कि कृत्रिम दमन के द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, अन्त में अवश्य असफल होगा, क्योंकि विषय सुख का रंचमात्र विचार भी उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य संसार में पुनः गिर जाता है।
चेतना के विकास से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग आत्म कल्याण के लिए किया जा सकता है। जो आत्म स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं, वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से बचने का प्रयास करते हैं, फलतः वे बन्धन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते। इसके विपरीत ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग निस्काम भाव से किस प्रकार किया जाय तब वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता।
समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति आत्म आनंद प्राप्त कर सकता है। यद्यपि ज्ञानी व्यक्ति ऊपर से विषयी स्तर पर क्यों न दिखे, किन्तु चेतना होने से वह विषय-कर्मों में आसक्त नहीं होता। उसका एकमात्र उद्देश्य तो चेतना से परमानंद में रहना है। अतः वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है।
प्रकृति/ ब्रह्म की इच्छा होने पर ज्ञानी सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु यदि प्रकृति/ ब्रह्म की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा, जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो। अतः कर्म करना या न करना उसके वश में रहता है।
यही है सबसे अहम सूत्र: जैसी मति वैसी गति।
अपने चिंतन की दिशा पर हमेशा ध्यान रखें।
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