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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

खेल

 खेल है प्रकृति का, गुण दिए हैं प्रकृति ने। तुम नाहक ही अपने पर ले रहो हो । तुम तो ताश के पत्तों के समान हो, जो हो वो हो खेल में, खेल ही बताता है किस कि कितनी किमत है। इसमें खिलाड़ी का कोई खास योगदान है नहीं। 

सत्य ऐसे है जैसे पत्तों का कैस (case)। 

खेल खत्म, पत्ते वापस अपने कैस में । सत्य न तो खेल में शामिल है, न ही खेल के खत्म होने में शामिल है। सत्य है तो खेल है। पर सत्य खेल है नहीं। सत्य को जान जानें से खेल के सारे गुण जाने जाते हैं।

प्रकृति और सत्य के बीच एक बोध का पूल है। मनुष्य की बैचेनी उसका इस पूल पर एक छोर से दूसरे दोर भागने का परिणाम है। जब हम प्रकृति का अतिक्रमण करके सत्य की ओर बढ़ते हैं, सत्य के प्रेम में पक्ष कर उसके पास जाते रहते हैं। जितना सत्य के नजदीक हो उतने ही आनंद में हो । आपका लक्ष्य आनंद है, तो सत्य का बोध जरूरी है।

🙏

मंगलवार, 22 नवंबर 2022

आपका प्रयास और मुक्ति

 मुक्ति की चाह ही मनुष्य की सबसे बड़ी चाह है। और मुक्ति की राह सबके लिए अलग है। सबकी परिस्थिती अलग - अलग होती है। सबके अलग - अलग बंधन हैं।

सबका अंतमन 'सत्य' को जानता है और नहीं भी। क्योंकि जहाँ भी बात सत्य की चल रही हो आपका मन वहाँ राजी हो जाता है। सत्य मन से परे है पर उसका अहसास मन को होता है।

 यही हमारी सबसे विकट समस्या है - कि कुछ है तो सही पर मन उसको पा नहीं सकता।

करें अब क्या ? चाहत तो है 'सत्य' की पर मिलता वो दिखाई नहीं देता। अब या तो हम सत्य है ही नहीं मान लें और जैसे जी रहे हैं, वैसे ही जीते मान रहें। जैसे जी रहें हैं वैसे तो हम जीना चाहते नहीं।

तो फिर 'सत्य' के लिए प्रयास करते रहे।

सत्य के लिए प्रयास कैसे करें, जब बो से मन बाहर की बात है? ‘असत्य’ से दूर रह कर ही सत्य के समीप रह सकते हैं। असत्य हम से दूरी, असत्य को हराने की कोशिश ही जीवन में आनंद का संचार करती है।

असत्य क्या है? ये ही जानना आपका ध्येय है। मन को मुक्ति चाहिए, आनंद चाहिए, क्योंकि मुक्ति और आनंद आपका स्वभाव है। जो भी गुण, विचार, व्यक्ति आपको मुक्ति से दूर करें वो है असत्य,  उसको हटाने पर आपको मुक्ति की समीपता का पता चलता है।

अपने लिए ईमानदार बने, अपने हर काम को जाँच लें - अपने बंधनों को जान लें, तभी आप बंधनों को काट सकते हैं। इसके लिए आपको किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। परंतु एक गुरु के सानिध्य में बधनों का पता जल्दी लग सकता है, जल्दी मुक्ति की संभावना होती है।


रविवार, 17 अप्रैल 2022

🌼आत्मज्ञान🌼

 जीवन आपको व्यस्त रखे है, उलझाए हुए है, जीवन लगातार गतिमान है। कुछ-न-कुछ नया लगातार आपके सामने आ ही रहा है। कोई-न-कोई चुनौती आपके सामने है। कोई पल ऐसा नहीं है जिसने आपको छुट्टी दे दी हो कि अभी कोई दायित्व नहीं। हमेशा कोई-न-कोई बात अधूरी है, कुछ-न-कुछ समस्या बनी ही हुई है। 

तो नतीजा यह है कि घटनाएँ लगातार घट रही है और आप उन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए विवश हैं। क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं आप, आपको यह समझने के लिए अलग से वक़्त नहीं मिल रहा। आप सभी के जीवन में ऐसे दिन आए हैं न जब एक के बाद एक चुनौती या समस्या या काम खड़ा होता रहता है? और कई बार तो एक ही समय पर कई लंबित काम सामने होते हैं, ऐसा हुआ है? 

और जो कुछ हो रहा है, वह बड़े अनायोजित तरीके से हो रहा है। आपको पहले से पता नहीं था कि दोपहर दो बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी और दोपहर साढ़े तीन बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी, आप नहीं जानते थे। बस एक के बाद एक लगातार प्रवाह में स्थितियाँ बदलती जा रही हैं और आप आबद्ध हैं उनमें से हर स्थिति को जवाब देने के लिए, कोई प्रत्युत्तर देने के लिए, प्रतिक्रिया करने के लिए। तो जीवन हमारा ऐसे बीतता है। क्या हुआ, किसने किया, अच्छा किया, कि बुरा किया, जो हो रहा है, वह कैसे हो रहा है, इस पर हम ग़ौर नहीं कर पाते। 

आत्मज्ञान का मतलब होता है ठीक तब जब जीवन की गति चल रही है, आप इस बात के प्रति जागरूक हो जाएँ कि आप बिना उस गति को रोके भी उस गति से बाहर हो सकते हैं। प्रकृतिगत गति चलती रहती है और आप उस गति के मध्य भी शून्य और शांत हो सकते हैं। जब आप उस गतिशीलता से दूर होकर, बाहर होकर खड़े हो जाते हैं तो आपको दिखाई देने लग जाता है कि यह चल क्या रहा है—चलना माने गतिमान होना—यह ग़लती किसकी है, कौन कर रहा है, यह हरकतें कौन कर रहा है, यह काम पर किसने डाला —यह आत्मज्ञान है। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ चलती हुई चीज़ पर नज़र रखना। क्या चल रहा है? प्रकृति का सतत् बहाव चल रहा है। आपको नज़र रखनी है। यह क्या हो गया उस बहाव में? अभी-अभी मुँह से शब्द निकल गया, उस शब्द के पीछे कौन था? शब्द के पीछे तीन हो सकते हैं – प्रकृति, अहम्, परमात्मा। आत्मज्ञान का मतलब है पता हो कि कहीं पहले दो तो नहीं थे। पहले दो में भी अगर पहला था तो कोई बात नहीं। आपके मुँह से ध्वनि निकले तो वह आपकी डकार हो सकती है न? अगर आपके मुँह से डकार निकली है, तो कर्ता कौन है? प्रकृति। 

आपके पेट में भोजन पक रहा है, इसमें आपका कोई संकल्प नहीं शामिल है; यूँ ही हो रहा है। तो इस कर्म का कर्ता कौन है? प्रकृति। आपके पेट में भोजन पच रहा है, अभी कर्ता कौन है? प्रकृति। जिस चीज़ की कर्ता प्रकृति हैं, हमने जान लिया कि उसकी कर्ता प्रकृति है। और आप भोजन ग्रहण क्या कर रहे हैं, इसका कर्ता कौन है? इसका कर्ता अहम् हो सकता है, अधिकांशत: अहम् ही होता है। 

बहुत कम लोग होते हैं जो प्रकृति के अनुसार भोजन ग्रहण करें। ज़्यादातर लोग भोजन ग्रहण करते हैं अहम् के अनुसार। और ऐसे लोग जो परमात्मा के अनुसार भोजन ग्रहण करें, वो और भी कम होते हैं। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ कि आपको साफ़ पता हो कि कर्म के पीछे कौन है। यह अभी जो आपने निवाला भीतर डाला, वह शरीर की माँग थी? अगर शरीर की माँग थी, तो कर्ता कौन हुआ? प्रकृति। वह अहम् की माँग थी अगर, तो कर्ता हुआ अहम्—या कि ‘रूखी सूखी खाई के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी ना ललचावे जी’, अब कर्ता कौन है? परमात्मा। यह आत्मज्ञान है। मैं जो कर रहा हूँ, उसके पीछे कर्ता कौन है, यह पता कर लो —यही आत्मज्ञान है। 

बहुत गड़बड़ बात है अगर तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है अहंकार। उससे श्रेष्ठ बात है कि तुम जो कर रहे हो, उसकी कर्ता है प्रकृति। श्रेष्ठतम बात है जब तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है परमात्मा। तुमने छोड़ दिया अपने-आपको, कहा ठीक है। यह आत्मज्ञान है – अपने कर्मों को जानना, अपने विचारों को देखना कि यह जो विचार आ रहा है, यह कहाँ से आ रहा है। 

जैसे खाने के निवाले का पता चल सकता है न कि तुमने जो भोजन सामने रखा है, वह क्यों चुना है, वैसे ही अगर ग़ौर से देखो तो अपने सूक्ष्म कर्मों का अर्थात् विचारों का भी पता चल सकता है कि कहाँ से आ रहे हैं विचार —यही आत्मज्ञान है। 

और याद रखना आत्मज्ञान का मतलब यह नहीं होता कि तुम आत्मा को जान गए; आत्मा के ज्ञान को आत्मज्ञान नहीं कहते। आत्मज्ञान का बस यह मतलब है – अहंकार का ज्ञान। वास्तव में जब कर्ता परमात्मा होता है तो उसको जानने वाला भी कोई बचता नहीं है। जब भी तुम जान पाओगे तो यही जान पाओगे कि कर्ता या तो प्रकृति है या अहंकार है। 

मैं जो कर रहा हूँ, वह कहाँ से आ रहा है, यही जानना आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान भी श्रेष्ठतम तब है जब जो हो रहा है, उसको होने के क्षण में ही जान लिया जाए। करने को तुम यह भी कर सकते हो कि बीती घटना का अवलोकन करो और फिर तुम्हें पता चले कि जो तुमने करा, वह क्यों करा था। वह भी है आत्मज्ञान की ही एक श्रेणी, पर वह निचली श्रेणी हैं। उससे भी लाभ होगा, पर बहुत कम लाभ होगा। आत्मज्ञान से ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ तब होता है जब तत्क्षण आत्मज्ञान हो जाए। 

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

अवस्थाओं के पार, स्वयं का सार

      जाग्रति, निद्रा और सुषुप्ति का ज्ञान हमको होता है, प्रतिदिन। इनका ज्ञान होने के लिए हमारे पास हैं दस इंद्रियां और अंतःकरण। कुल १४ गुण हैं।

दस इंद्रियां मे पहले हैं –पांच कर्मेंद्रियां 

दूसरा– पांच ज्ञानेंद्रियां 

उसके बाद है अंतःकरण यह आंतरिक इंद्रियां कहलाती हैं। यह ४ प्रकार से हैं: मन, बुद्धि, चित, अहंकार।

इसके आधार पर चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रति, निद्रा, सुषुप्ति को समझ सकते हैं।

     जाग्रत अवस्था - वो अवस्था है चेतना की जिसमें सभी १४ इंद्रियां सक्रिय हैं। 

यहां जब कुछ आया हमारी इंद्रियों की पकड़ में - रंग, रूप, रस, गंध, शब्द और ये इन्द्रियों के द्वार भीतर प्रवेश करते हैं, फिर भीतर आयी जानकारी पर अंतःकरण क्रिया द्वारा एक रचना का निर्माण कर दिया जाता है। अब जो रचना हुई है उसको हम अनुभव कहते हैं। इन अनुभवों से, या इसके आधार पर हम कर्म करते हैं।

     अब हमारा अहम (अहंकार) अगर अनुभवों से या उसके फलों में बहुत आशक्त है तो फिर ये जो अहम है, इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करता कि बाहर से कुछ सामग्री आए, फिर मैं उससे क्रिया करके अनुभव बनाऊ। वह पहले से मिले अनुभवों और अनुभवों पर आधारित स्मृति से कल्पना का उपयोग करके कुछ - न –कुछ अनुभव तैयार कर लेता है - इस अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं।

     जागृत अवस्था में तो अनुभवों का निर्माण करने में इन्द्रियों का सक्रिय होना जरूरी है। 

       जैसे पैसों से संबंधित अनुभव के लिए आपको पैसो का देखना, छुना या पैसों के बारे में बातचित होना जरूरी है। 

       परंतु स्वप्न में इन्द्रियों का जागृत होना जरूरी नहीं है। यहाँ अहम् धन संबंधित कल्पना करके, अपने धन संबंधित अनुभवों को भोग लेता है। ये अहम् की कोशिश है अनुभवों को भोगने की जिसको वो जाग्रत में न कर (भोग) पा रहा है।


      अब तिसरी है- सुषुप्ति - इस अवस्था में अहम् - अपने होने मात्र से ही संतुष्ठ हो जाता है। यह अवस्था बहुत आनंद देती है, पर यह पूर्णतया स्थिर नहीं है –अनित्य है। यह समाधी के जैसी है, पर अपूर्ण है, अज्ञान ही है।

     इसके आगे है तुरीय, यह कोई अवस्था नहीं है, यह तीनों अवस्थाओं के प्रति अरुचि है। यह है - अनुभवों और उसके फलों के प्रति अरुचि, अनाशक्ति। इसको ही साक्षी, चेतना कहते हैं।

     अब आपको साक्षी होने के लिए कोई - कर्म, ध्यान, साधना करने की जरूरत है? —नहीं!!! केवल अनुभवो और अनुभव के फलों के प्रति आशक्त नहीं होना है।


मन आदिचतुर्दशकरणैः पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान्-स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणम्।

तद्वासनासहितैश्चतुर्दशकरणैः शब्दाद्यभावेऽपि वासनामयाञ्छब्दादीन्यदोपलभते तदात्मनः स्वप्नम्।

चतुर्दशकरणो परमाद्विशेषविज्ञानाभावाद्यदा

शब्दादीन्नोपलभते तदात्मनः सुषुप्तम्।

अवस्थात्रयभावाभावसाक्षी स्वयंभावरहितं

नैरन्तर्यं चैतन्यं यदा तदा तुरीयं चैतन्यमित्युच्यते। ॥४॥


"देवों की शक्ति द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और दस इन्द्रियाँ- इन चौदह करणों द्वारा आत्मा जिस अवस्था में शब्द, स्पर्श, रूप आदि स्थूल, विषयों को ग्रहण करती है, उसको आत्मा की जाग्रतावस्था कहते हैं। शब्द आदि स्थूल विषयों के न होने पर भी जाग्रत स्थिति के समय बची रह गई वासना के कारण मन आदि चतुर्दश करणों के द्वारा शब्दादि विषयों को जब जीव ग्रहण करता है, उस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं। इन इन्द्रियों के शांत हो जाने पर जब विशेष ज्ञान नहीं रहता और इन्द्रियाँ शब्द आदि विषयों को ग्रहण नहीं करतीं, तब आत्मा की उस अवस्था को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं की उत्पत्ति और लय का ज्ञाता और स्वयं उद्भव और विनाश से सदैव परे रहने वाला जो नित्य साक्षी भाव में स्थित चैतन्य है, उसी को तुरीय चैतन्य कहते हैं, उसकी इस अवस्था का नाम ही तुरीयावस्था है।"

 सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ४

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

आत्म ज्ञान से कर्म निवृत्ति


           व्यक्ति को प्रकृति से उपहार स्वरूप अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इन गुणों को उपयोग कर कर्म करना होता है। कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। ना चाहने पर भी अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
यह अनुभवकर्ता का स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है। सदैव अनुभव को देखने में लगा है। अतः आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए खुद(मन) को अच्छे अनुभवों (सत्कर्म) में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा। माया के संसर्ग में आकर भौतिक जगत से जुड़ाव प्राप्त कर लेता है और इससे उत्पन्न सूख दुःख को भोगने वाला बन जाता है। किन्तु यदि आत्म स्वरूप, आनंद से उत्पन्न अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

           "यदि कोई आत्म ज्ञानी शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी। किन्तु यदि कोई शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और आत्म ज्ञान न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?" संन्यास या कोई भी पद्धति आत्म ज्ञान के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है।

            मान लो कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं, जो चेतना में कार्य तो नहीं करते, किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं।

              आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है, वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है, जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।

             अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

आनंद में रहने की सरल विधि

        खेल– आनंद में रहने की सबसे सरल विधि है। आप बच्चो को देख सकते हैं, जब वो खेल में मगन होते हैं तो कैसे आनंद में रहते हैं!! खेल में मगन बच्चो को न भूख है, न ही गर्मी सर्दी। न कोई मान सम्मान न ही कोई मित्र न ही शत्रु। और आपने सुना भी होगा कि "संसार खेल मात्र है परमात्मा का"।

       अगर आपका जीवन में से ये खेल का सूत्र गायब है तो फिर आपका जीवन आपको बहुत बोझिल लगेगा, थकाने वाला लगेगा। संसार का सार केवल यहीं है कि ये सब बस माया का खेल है। अगर आप खेल को खेल ही जान कर खेल रहे हैं तो आप सदा खुश रहते हैं।

       मनुष्य की सबसे बड़ी परेशानी यही हुई है कि वो खेल को खेल नहीं बल्कि चुनौती समझ गया है, खेल में जीत और हार को मूल्य दे रहें हैं और दुख ले रहें हैं।

        गुरु की जरुरत केवल यही समझाने के लिए है कि आप थोड़ा रुक कर देख लो कि ये बस खेल है, कोई और इसका मकसद नहीं है। खेल का आनंद लो। 

छोड़ो क्या करना है आत्मा का, परमात्मा का।

पहले खुद को ठीक से जान लो। खेल को पहचान लो। और आनंद में आगे बढ़ जाओ।

सोमवार, 20 सितंबर 2021

गुरु –आईना

          आईना एक ऐसा शीशा है जो उस पर पड़ने वाली रोशनी को वापस परिवर्तित कर देता है। सबके घर में आईना तो उपलब्ध ही होता है। अध्यात्म में इस आईने का बहुत महत्व है। अगर आप देखें ठीक से तो आपको पता चलेगा की जो भी आईने के सामने आता है, आईना उसे वही दिखाता है; जो भी उसके सामने है, अब अगर आईने के सामने मानिए टमाटर है –तो आईना टमाटर दिखाएगा, आईने के सामने कोई बच्चा खड़ा है –तो आईना बच्चा ही दिखाएगा, आईने के सामने कोई जवान है –तो जवान ही दिखाएगा। आईने के सामने कोई वस्तु है तो आईना वही दिखाएगा। 
         
         यही इसकी खूबी है कि आईने के जो भी सामने पड़ जाए वही उपस्थित होता है, कोई बदलाव नहीं : ठीक वैसा– जैसा है। अध्यात्म से देखें तो आईना आपका अनुभवकर्ता है/ आत्मा है। यहां जो भी सामने आता है वही प्रकट होता है, अनुभव होता है। आईना सब को देखता तो है पर किसी भी परिस्थिति से खुद को जोड़ता नहीं है; कोई बच्चा सामने था तो बच्चा दिखा दिया, बड़ा सामने आता है तो बड़ा दिखा दिया और कोई चला गया तो चला गया आईना मौजूद है। आईना कभी पीछे नहीं भागता कि बच्चा मुझे पसंद आया, यह जवान मुझे पसंद है, कोई भी वस्तु मुझे पसंद है। ठीक है, जो सामने है दिखा दिया नहीं तो अपने आप में मौजूद रहता है। यही हमारा गुण होना चाहिए, यही हमारा स्वभाव होना चाहिए। संसार सामने दिखता तो है, उपस्थित तो है, दिख तो रहा है पर जहां पर उसका प्रतिबिंब दिख रहा है, छाया प्रगट है उतनी ही जगह पर दर्पण भी तो उपलब्ध है। दर्पण है पर वह प्रभावित नहीं होता। यह हमारा लक्ष्य है । जब हम आईने के सामने होते हैं तो हमें हमारा स्वरूप दिखाई देता है, उसका बोध हमें पता चलता है। वहां उस आईने के सामने हम खुद को ठीक से देख सकते हैं, संवार सकते हैं। अपनी की हुई त्रुटियों को हटा सकते हैं। इसीलिए तो आईना इतना महत्वपूर्ण है, जो आपको आपका स्वरूप खराब है, या आप सुंदर है बता देता है। आपने अपना स्वरूप देख लिया है, उस का बौध हो गया। अब आईने का काम खत्म अब आप आईने के सामने से हट जाते हैं, आपको पता है कि आप क्या हैं?

       अध्यात्म में गुरु ही वह आईना है जो कि हमें हमारे मूल स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इसी वजह से हमें गुरु के सानिध्य में इतना आनंद आता है, क्योंकि हम गुरु के सानिध्य में अपना ही स्वरूप देख रहे हैं, खुद को ही जान रहे हैं। इसी वजह से हम गुरु के सानिध्य में आनंद पाते हैं, क्योंकि हमें हमारे स्वरूप का बोध होता है और एक बार बोध हो जाने पर हम आगे निकल सकते हैं और आईने के सामने कोई और खुद के दर्शन कर सकता है। गुरु के अंदर इतना भी प्रयास नहीं होगा कि, आप कहें– जाना चाहते हैं, आप जाएं। आपने ले लिया, आपने जान लिया – आपका रूप क्या है, स्वरूप क्या है? 
सभी साथियों से निवेदन है– एक बार गुरु आईने के सामने आए अपना स्वरूप देखें और स्वयं अपने अंदर आनंद को प्रकट कर लें।

शनिवार, 11 सितंबर 2021

आनंद सूत्र

मनुष्य के दुःख मूल क्या है। 
             विचार –विचार सतत चलने वाली क्रिया है । 

यह आपके दुःख कारण कैसे है?
            विचार जब तक हैं, वो गतिमान ही रहेंगे – यही इसका गुण है। अब विचार कैसे भी प्रकट हो सकते हैं- अच्छे, बुरे, सच्चे –झूठे। अब अगर आपके विचार के अनुसार आपका कार्य नहीं होता तो दुःख या कार्य के अनुसार आपके विचारो का गठन नहीं होता तो दुःख। 

एक मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा क्या है - चाहे वो कोई भी हो ?
           इन विचारों से मुक्ति या इन विचारों पर जय।

क्या यह संभव है ?
            संभव है । 

सूत्र क्या है ?  सत्य का सँग !!
           दुखी व्यक्ति का सत्संग तक पहुंचना भी कठिन जान पड़ता है। क्योंकि माया का परदा पड़ा है –आसा का। एक आस बांध रहती है कि जहां आज दुःख है वहा कल सूख होगा। यह मृगजल जैसा है दिखाई देता है ; कि पानी है, परंतु जब वहां जाओगे तो वहां नहीं है, किसी और जगह है। ऐसी ही स्थिती मानव जाति की है।
ऐसे मृगजल की भ्रांति से ग्रस्त व्यक्ति को केवल यह बोध कि यह मृगजल है सत्य नहीं– बचा सकता है। 

यह बोध कैसे हो ?, 
          बोध प्राप्त व्यक्ति ही ऐसा बता सकते हैं, उनको हम गुरु कहते हैं। गुरु आपको बोध कराते है - सत्य का और आगे बढ़ जाते हैं। 

बोध की विधि क्या है ? 
 १. श्रवण : सुनना /देखना
              जिसकी बुद्धि प्रखर है, प्रज्ञा तेज है, उनको केवल सुनना/ देखना ही प्रयाप्त है। ठीक से सुनने/देखने पर ही बोध हो जाएगा। जैसे मछुआरों को लहर देख कर ही तूफान आएगा या नहीं पता चल जाता है। जैसे अग्नि को देखते ही उष्णता का पता चल जाता है।

२.मनन:
           अब अगर तीव्र प्रज्ञा नहीं है तो फिर मनन कुंजी है| मनन भी विचारों के समान ही एक स्तत क्रिया है। पर यह एक ही दिशा में गतिमान है ।
गुरु से प्राप्त ज्ञान को श्रवण करना है, फिर ज्ञान को अनुभव तक पकाने के लिए तर्क और विवेक की अग्नि पर चढ़ाना है।

३. निधिध्यासन:
             यह एक मास्टर चाबी है। इससे काम बनने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ पर हम गुरु से सुने ज्ञान पर मनन कर उपलब्ध हुए अनुभव को उपयोग करते हैं। यह, अंतिम विधि है। जब ज्ञान से उपजे अनुभव को आप प्रयोग करते | यही सतत समाधी में है। 

      सारी क्रिया ऐसे है, जैसे, पहली बार खाना बनाने की कोशिश: 
१. सुना/ देखा– कैसे-कैसे बनाते हैं और आ गया। 
२. कोशिश (मनन) –खुद तैयारी की और बनाने का प्रयास किया जब तक सही से नहीं बना।
३. आनंद - एक बार सिख लिया कैसे बनाते हैं फिर सदा के लिए सिख लिया | अब बनाना है और खाना है –आनंद है।

           एक बार पुन: अपने प्रश्न को देखते है विचारों का भार है, दुख है । सुख - आंनद कैसे मिले
उत्तर है– असत्य का नाश कर दें | 
कैसे ?
सत्य के प्रकाश से।
सनातन सत्य: जो परिवर्तन करता है वह असत्य है। इसका श्रवण हुआ, ज्ञान प्राप्त हुआ।

मनन: परिवर्तन करने वाली सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, भावनाओ को तर्क और विवेक से जांचना और परिवर्तनीय में छिपे अपरिवर्तनीय के बोध को जानना।

निधिध्यासन: सतत इस बोध का उपयोग करना। चेतना में जीना है। यही साक्षी बोध है। साक्षी की अवस्था में आपको विचारों का भार नहीं है। आप विचारों के दृष्टा हैं। यही परमानंद अवस्था है।

बालवत स्वभाव को कोन समझेगा ।
जो खुद खो गया उसको कोन खोजेगा।।
मोन से टकरा रहा है आनंद, पर जिसे 
कहा ना जा सके उसे कोन कैसे कहेगा?
मन मयूर की प्यास बुझा दे।
हे गुरु मोहे परमआनंद पिला दे।।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

आनंद में बाधा नहीं

          आत्मज्ञान तो सरलता से उपलब्ध है फिर भी हमारे बोध में नहीं आ पता है। इसका क्या कारण है? जो कारण दिखाई देता है– वह है शरीर और मन से आसक्ति। क्योंकि जो दिखाई देता है वह तो केवल भौतिक शरीर है। जिसके जागने से यह भौतिक शरीर मालूम पड़ता है, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यहां हम मन को सुक्ष्म शरीर से उपयोग कर रहे हैं। यह सुक्ष्म शरीर ही है जो भौतिक शरीर को अनुभव कर रहा है, महसूस कर रहा है।

          हम-अधिक स्थूल शरीर को ही महत्व देते हैं। सुक्ष्म को कम देते है पर सुक्ष्म शरीर का महत्व स्थूल से ज्यादा है। सुक्ष्म शरीर भी अंत में मिट जाता है– कारण शरीर ( अस्तित्व ) में मिल जाता है और फिर पुनः प्रकट होता है। जैसे– बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष | इसी प्रकार स्थूल व सुक्ष्म शरीर कारण में विलय, कारण से उत्पन्न होते हैं। सुक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि) अज्ञानता वश रोज कारण में विलीन होते हैं–गहरी नींद में। पुन: निकल आते हैं।

           यहां कार्य सुक्ष्म और स्थूल है और सुसुप्ति कारण है। जो कारण और कार्य कोई भी नहीं है वह चेतन(दृष्टा) है। दृष्टा न तो कार्य है न ही कारण है वह तो इन दोनों को देखने वाला है। इसका महत्व न के बराबर है, क्योंकि मनुष्य स्थूल शरीर का ही लाभ (उपयोग), आनंद ले रहे हैं, इसके न रहने पर दुख देख रहे हैं। ऐसा सभी के साथ है । कोई ज्ञानी अगर देह भाव से मुक्त भी हो तो भी उस पर आश्रित लोग तो दुख पाते हैं - क्योंकि वो तो उनसे लाभ ले रहे थे। अतः देह को ही सत्य माना गया है |

              जब यह पता चलता है कि इस स्थूल और सुक्ष्म के मिटने पर भी यह दृष्टा /चेतन्य सदा रहता ही है। पर इसके होने का आंनद नहीं ले पा रहे हैं। दृष्टा ही परमसत्य है, परमानंद है पर उसका लाभ न ले पाना, इसके महत्व को कम करता है। अब इस आनंद को कैसे पाना है इसको हम देख सकते हैं।
 इस पर क्रम से चल सकते हैं:
 १. स्थूल से सुक्ष्म में ज्यादा आनंदित रहें। 
                पदार्थ तो क्षणीक रूप से ही चाहिए, जैसे- रोटी कपडा और मकान– जिससे स्थूल शरीर चलता रहे । जब स्थूल इच्छाएँ पूर्ण हैं, तब आपके पास जो खाती समय है- क्या आप तब प्रसन्न हो ? 
जब एकांत में हो तो क्या प्रसन्न हो ?
अपने आप प्रसन्न हो ? 
                जब शरीर की ज़रूरत पूरी हो तो पीछे रह जाता 'मन', चित्त, सुक्ष्म शरीर | इसको सुख की भुख है, इसको प्रसन्ना चाहिए - यह सुख की तरफ जाता है। अब आपको यह चित्त खोज में भेजेगा । यहाँ से मार्गों की आवश्यकता का उदय होता है– संसार या आध्यात्म। 
 अगर मन सुख के लिए बाहर जाता है तो संसार का निर्माण करता है। और यही वृत्ति संसार को विस्तार देती है। संसार में कोई सुख पूर्ण नहीं है, यह तो हम सबका अनुभव है। इस पर अधिक क्या कहना।

२. सुक्ष्म से ज्यादा चेतना में आनंदित रहें। यहाँ भी मार्गों की व्यवस्था है:
        १. प्रेम (भक्तिमार्ग) गुरु से 
        २. बोध ( ज्ञानमार्ग) गुरु ज्ञान से
दोनों का अंतिम परिणाम आत्मज्ञान और आनंद है।
आत्मज्ञान और समर्पण से ज्ञानी और भक्त दोनों ही आत्म आनंद को पा सदा खुश रहते हैं।

सोमवार, 6 सितंबर 2021

ज्ञानमार्ग से आनंद की ओर

        मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ बैचेन है, दुखी है, संताप में है। और यहाँ - वहाँ सुख  की तलाश में भटक रहे हैं। आप भटक हैं- कभी वस्तुओं से सुख की आस में, कभी स्त्री या रिश्तों से सुख की आस में | यह वस्तुओं और मनुष्यों से सुख की प्यास बुझाने का प्रयास ही "संसार" के उदय का कारण है । यह संसार कहीं बाहर नही है - हम सबके अंदर ही है। जब आपके अनंत प्रयास के बाद भी आपको सुख की प्राप्ती नहीं होती और अगर सुख मिलता भी है तो कुछ देर बाद ही उससे दुख मिलने लगता है। जैसे आपको कोई भोजन बहुत प्रिय है, और आपको वही भोजन हर रोज, हर बार मिले तो आप उससे दो- तीन दिन में ऊब ही जाते हैं, उससे उपर जाने पर आपका प्रिय भोजन भी ज़हर समान हो जाता है। 
  
      इसके विपरीत भी आप सुख की खोज में भटक रहे हो सकते हैं, अगर संसार के दुख से दुखी हो आप दूसरी ओर भाग सकते हैं–अब आप सुख की कामना से वस्तुओं का त्याग करते हैं, स्त्री-रिश्तों का त्याग कर संसार से संन्यास की ओर भागते हैं, परंतु सुख मिलेगा नहीं क्योंकी मूल में तो वही कमाना है जो संसार को जन्म देती है। इन सभी क्रियाओं और कर्मों का फल शायद कुछ भी ना निकले।

      आनंद का उदय आपके अंदर ही होता है। वह ऐसा रस है जो कि किसी वस्तु-विषय पर निर्भर नहीं है। आनंद की तलाश आपको अंदर की ओर मोड़ती है तब जीवन में आध्यात्म का जन्म होता है। अपने स्वरूप के ज्ञान को ही आध्यात्म कहते हैं। इस ज्ञान /बोध से ही आनंद की प्यास बुझती है। इस परमानंद अवस्था तक पहुंचने के कई मार्ग हैं: भक्ति मार्ग, योगमार्ग (कर्म मार्ग ) और, ज्ञानमार्ग।

      हर मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग पर अपने से ज्यादा अनुभवी गुरु की जरूरत पड़ती है । अत: इसके लिए आपको अपनी यात्रा जीवित गुरु से शुरू करनी है। बिना जीवित गुरु के आपका प्रयास विफल हो जाएगा या छोटे बच्चे की बकवाद के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

      ज्ञानमार्ग बाकी मार्गों में सबसे छोटा और सरल है। परंतु इस मार्ग पर गति करने के लिए आपको मुमुक्षु होना चाहिए और थोड़ी समझ - बुद्धि होनी चाहिए।
     
      ज्ञानमार्ग पर हम अद्वैत को साधते हैं अपने - प्रत्यक्ष अनुभवो द्वारा; प्रत्यक्ष अनुभव (स्वयं का अनुभव) ही आधार है। इस मार्ग पर चलते हुए हम अपनी विवेक– बुद्धि को बढ़ाते हैं और तर्क से इस महास्वप्न के आधारों को काटते है और उसके मिथ्या होने की घोषणा करते हैं।  

      ज्ञान से हम जानते हैं कि जो परिवर्तन हो रहा है वह शाश्वत नहीं है। शाश्वत केवल एक ही है जिसको हम अनुभवकर्ता/ साक्षी या "मैं" कहते हैं। साक्षी /अनुभवकुर्ता वह है जो सबका अनुभव कर रहा है, या जो सब देख रहा है पर प्रभावित नहीं होता है। इस साक्षी अनुभवकर्ता का निरंतर बोध ही चेतना कहलाती है। इस साक्षी की उपस्थिती का आलंबन ही मोक्ष है, मुक्ती है । यह स्थिती ही आनंद की स्थिती है। यही पूर्णम शून्यम सत्यम का उद्घोष है।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...