मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

🌼 बोध और चेतना 🌼

              अब तक हमने जाना की आनंद ही जीवन की सबसे बड़ी चाह है। इस चाह की पूर्ति आत्म ज्ञान से ही संभव है। चेतना आत्मा का लक्षण है। चेतना को विकसित करना ज्ञान मार्गी का लक्ष्य है। अब हम देख सकते है कि उन्नति कितनी हुई है। इसके लिए हमे इन सरल सवालो को जांचना है। ऐसा ही सवाल अर्जुन ने गीता में भगवान श्री कृष्ण से पूछा था।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४॥ (भगवतगीता)

          अर्जुन ने पूछा- हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है ?

               जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के उसकी विशिष्ट स्थिति के अनुसार कुछ लक्षण होते हैं उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष का भी विशिष्ट स्वभाव होता है यथा उसका बोलना, चलना, सोचना आदि। जिस प्रकार धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते हैं, जिनसे वह धनवान जाना जाता है, जिस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना जाता है या कि विद्वान् अपने गुणों से विद्वान् जाना जाता है, उसी तरह आत्म की दिव्य चेतना से युक्त व्यक्ति अपने विशिष्ट लक्षणों से जाना जा सकता है। इन लक्षणों में सबसे महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञानी व्यक्ति किस तरह बोलता है, क्योंकि वाणी ही किसी मनुष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है। कहा जाता है कि मूर्ख का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं। एक बने-ठने मूर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जब तक वह बोले नहीं, किन्तु बोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। चेतना युक्त व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल सत्य तथा उन्हीं से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है। फिर तो अन्य लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं। 

                 जो मनुष्य चेतना में होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाये जाते हैं, किन्तु जो व्यक्ति चेतना में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने चित्तवृत्ति पर ही आश्रित रहता है। व्यक्ति को चित्तवृत्ति द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है। कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं। किन्तु यदि कोई ज्ञान मार्ग से चेतना जागृति में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएँ स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं। अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के चेतना की ओर चलना होगा। अत्यधिक उन्नत जीव (मुनि) अपने में आत्मतुष्ट रहता है। ऐसे आध्यात्मिक पुरुष (मुनि) के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय-वासना फटक नहीं पाती। वह अपने सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है।

                मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिन्तन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे, किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके। कहा जाता है कि प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब तक एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता। स्थितधी: मुनि सदैव चेतना में रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिन्तन पूरा कर चुका होता है। जिसने शुष्कचिन्तन की अवस्था पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि आत्म, ब्रह्म ज्ञान ही सब कुछ हैं वह स्थिरचित्त मुनि कहलाता हैवह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी ऐंद्रिय आसक्ति का अभाव। 

               भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से अप्रभावित रहता है उसे चेतना में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंद्वों) से पूर्ण है। किन्तु जो चेतना में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार अपने आत्म आनंद से रहता है। इस प्रकार मनुष्य ऐसी चेतना पूर्ण स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं।

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