मनुष्य अपने शरीर को ही सत्य मानकर, मान- अपमान, दुख-सुख, जन्म - मृत्यु के भय से आक्रत रहता है। शरीर तो परिवर्तनशील है ऐसा हमने पहले जाना है, परंतु उसके अनुभव की शक्ति तो शरीर की स्थितियों के साथ नहीं बदलती, वह तो एक सी ही रहती है। अतः यह भी स्पष्ट है कि वह शरीर से अलग कुछ अपरिर्वतनशील शक्ति भी है। इस अपरिर्वतनशील शक्ति को हम अपना मूल तत्व कहते हैं - अनुभवकर्ता /आत्मा कहते हैं।
यह अनुभवकर्ता शरीर के, मन के सभी प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है। सभी प्रकार से जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त है। इसकी उपस्थिति को जानने वाला सदा मुक्त और शांत है।
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(श्लोक २० गीता)
मैं/ अनुभवकर्ता/ आत्मा – के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |
अनुभवकर्ता/आत्मा का यह ज्ञान चेतना से उपलब्ध होता है। चेतना ही आत्मा / अनुभवकर्ता का लक्षण है। चेतना को जगाना ही एक ज्ञानमार्गी का लक्ष्य है। यदि कोई आत्मतत्व को न खोज पाता है तब भी वह आत्मा/ अनुभवकर्ता की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। जैसे कभी कभी बादल आकाश में सूर्य को छुपा देते हैं, परन्तु सूर्य तो सदा आकाश में रहता ही है। बादलों के हट जाने पर यह प्रमाणित हो जाता है।
ज्ञानमार्ग में हम यह ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और चेतना के विकास को प्राथमिकता देते हैं। जब चेतना सक्रिय होती है तो अनुभवकर्ता की उपस्थिति जान लेते हैं। यहां समस्या यही है की मनुष्य की चेतना विस्मरणशील है, इस कारण जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। तो उसके कल्याण के लिए गुरु ज्ञान प्रकट होता है, "गुरु" के उपदेशो से आत्म–कल्याण की शिक्षा और बोध प्राप्त होता है।
बहुत अच्छा वर्णन है चेतना और आत्मज्ञान का।
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हर्ष हुआ, आपने समय दिया
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