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शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

आनंद में रहने की सरल विधि

        खेल– आनंद में रहने की सबसे सरल विधि है। आप बच्चो को देख सकते हैं, जब वो खेल में मगन होते हैं तो कैसे आनंद में रहते हैं!! खेल में मगन बच्चो को न भूख है, न ही गर्मी सर्दी। न कोई मान सम्मान न ही कोई मित्र न ही शत्रु। और आपने सुना भी होगा कि "संसार खेल मात्र है परमात्मा का"।

       अगर आपका जीवन में से ये खेल का सूत्र गायब है तो फिर आपका जीवन आपको बहुत बोझिल लगेगा, थकाने वाला लगेगा। संसार का सार केवल यहीं है कि ये सब बस माया का खेल है। अगर आप खेल को खेल ही जान कर खेल रहे हैं तो आप सदा खुश रहते हैं।

       मनुष्य की सबसे बड़ी परेशानी यही हुई है कि वो खेल को खेल नहीं बल्कि चुनौती समझ गया है, खेल में जीत और हार को मूल्य दे रहें हैं और दुख ले रहें हैं।

        गुरु की जरुरत केवल यही समझाने के लिए है कि आप थोड़ा रुक कर देख लो कि ये बस खेल है, कोई और इसका मकसद नहीं है। खेल का आनंद लो। 

छोड़ो क्या करना है आत्मा का, परमात्मा का।

पहले खुद को ठीक से जान लो। खेल को पहचान लो। और आनंद में आगे बढ़ जाओ।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

आनंद में बाधा नहीं

          आत्मज्ञान तो सरलता से उपलब्ध है फिर भी हमारे बोध में नहीं आ पता है। इसका क्या कारण है? जो कारण दिखाई देता है– वह है शरीर और मन से आसक्ति। क्योंकि जो दिखाई देता है वह तो केवल भौतिक शरीर है। जिसके जागने से यह भौतिक शरीर मालूम पड़ता है, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यहां हम मन को सुक्ष्म शरीर से उपयोग कर रहे हैं। यह सुक्ष्म शरीर ही है जो भौतिक शरीर को अनुभव कर रहा है, महसूस कर रहा है।

          हम-अधिक स्थूल शरीर को ही महत्व देते हैं। सुक्ष्म को कम देते है पर सुक्ष्म शरीर का महत्व स्थूल से ज्यादा है। सुक्ष्म शरीर भी अंत में मिट जाता है– कारण शरीर ( अस्तित्व ) में मिल जाता है और फिर पुनः प्रकट होता है। जैसे– बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष | इसी प्रकार स्थूल व सुक्ष्म शरीर कारण में विलय, कारण से उत्पन्न होते हैं। सुक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि) अज्ञानता वश रोज कारण में विलीन होते हैं–गहरी नींद में। पुन: निकल आते हैं।

           यहां कार्य सुक्ष्म और स्थूल है और सुसुप्ति कारण है। जो कारण और कार्य कोई भी नहीं है वह चेतन(दृष्टा) है। दृष्टा न तो कार्य है न ही कारण है वह तो इन दोनों को देखने वाला है। इसका महत्व न के बराबर है, क्योंकि मनुष्य स्थूल शरीर का ही लाभ (उपयोग), आनंद ले रहे हैं, इसके न रहने पर दुख देख रहे हैं। ऐसा सभी के साथ है । कोई ज्ञानी अगर देह भाव से मुक्त भी हो तो भी उस पर आश्रित लोग तो दुख पाते हैं - क्योंकि वो तो उनसे लाभ ले रहे थे। अतः देह को ही सत्य माना गया है |

              जब यह पता चलता है कि इस स्थूल और सुक्ष्म के मिटने पर भी यह दृष्टा /चेतन्य सदा रहता ही है। पर इसके होने का आंनद नहीं ले पा रहे हैं। दृष्टा ही परमसत्य है, परमानंद है पर उसका लाभ न ले पाना, इसके महत्व को कम करता है। अब इस आनंद को कैसे पाना है इसको हम देख सकते हैं।
 इस पर क्रम से चल सकते हैं:
 १. स्थूल से सुक्ष्म में ज्यादा आनंदित रहें। 
                पदार्थ तो क्षणीक रूप से ही चाहिए, जैसे- रोटी कपडा और मकान– जिससे स्थूल शरीर चलता रहे । जब स्थूल इच्छाएँ पूर्ण हैं, तब आपके पास जो खाती समय है- क्या आप तब प्रसन्न हो ? 
जब एकांत में हो तो क्या प्रसन्न हो ?
अपने आप प्रसन्न हो ? 
                जब शरीर की ज़रूरत पूरी हो तो पीछे रह जाता 'मन', चित्त, सुक्ष्म शरीर | इसको सुख की भुख है, इसको प्रसन्ना चाहिए - यह सुख की तरफ जाता है। अब आपको यह चित्त खोज में भेजेगा । यहाँ से मार्गों की आवश्यकता का उदय होता है– संसार या आध्यात्म। 
 अगर मन सुख के लिए बाहर जाता है तो संसार का निर्माण करता है। और यही वृत्ति संसार को विस्तार देती है। संसार में कोई सुख पूर्ण नहीं है, यह तो हम सबका अनुभव है। इस पर अधिक क्या कहना।

२. सुक्ष्म से ज्यादा चेतना में आनंदित रहें। यहाँ भी मार्गों की व्यवस्था है:
        १. प्रेम (भक्तिमार्ग) गुरु से 
        २. बोध ( ज्ञानमार्ग) गुरु ज्ञान से
दोनों का अंतिम परिणाम आत्मज्ञान और आनंद है।
आत्मज्ञान और समर्पण से ज्ञानी और भक्त दोनों ही आत्म आनंद को पा सदा खुश रहते हैं।

सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रेम गली अति साँकरी जा में दो ना समाए - भक्तिमार्ग

      भक्तिमार्ग से अद्वैत की यात्रा सबसे छोटी है। भक्तिमार्ग सर्मपण का मार्ग है। यहाँ भक्त अपने आप को मिटाकर अपने से उच्च गुणों /अवस्था वाले गुरु, ईश्वररूप (मान्य) को पूर्ण  समर्पण करता है। यहाँ खुद को मिटाने का संबंध कुछ भी घटाने से नहीं है। जैसे आपको इस संसार में भी यदि क्षणिक रूप से किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस क्षण के लिए आपका कोई और अनुभव नही होता है । आपको केवल प्रेमी / प्रमिका ही सुनाई, दिखाई और महसूस होगा | उसके गुण-दोष सारे ही समाप्त हो जाते हैं । 

     ऐसी ही स्थिती एक भक्त कि है– वह खो जाता है और स्वयं भगवान हो जाता है। परंतु आज– कल ऐसा भक्त का मिलना चमत्कार ही होगा। इस पूरी पृथ्वी पर थायद ही ऐसा कोई मिले। इस काल में जहाँ मनुष्य शंकाओं, भ्रम और अंहकार की पाठशाला में ही जन्म पाता है। वहाँ समर्पण जैसे गुण का उदय चमत्कार ही होगा। इस मार्ग में भी अधिक भटकने और धीमे विकास की बाधाएं है। भक्त की समर्पणता से उसके सारे शुभ– दोष (चित्तवृत्ति) मिट जाएगे। फिर उसकी एकता होगी स्वयं से । 

   जब ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, तब वह विरला भक्त कह पाता है - प्रेम गती अति साँकरी जा में दो ना समाए।

      भक्तिमार्ग से ज्ञानमार्ग में थोड़ा प्रयास है, ज्ञानर्माग में हम बोध के लिए साधना करते, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने शुभों- दोषों (चित्त की परतों) को शांत करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रवण मनन निधिध्यासन को अपनाते हैं। आत्मबोध प्राप्त करते हैं । आत्मज्ञान होने पर किसी ज्ञानी को भी पता चलता है कि – संसार एक महास्वप्न है और केवल दृष्टा ही सदा है, निरंतर है। 

       इस ज्ञान के साथ अब ज्ञानी में शाश्वत प्रेम और समर्पणता आती है और अब अद्वैत अवस्था की प्राप्ती होती है। जहाँ इस काल में "प्रेम" सहज नहीं है, हमें पहले ज्ञानमार्ग से बोध की प्राप्ती के लिए जाना चाहिए। क्योंकि इन सभी मार्गो की अंतिम मंजील एक ही है– स्वयं की जागृति, परमानंद अवस्था।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...