आत्मज्ञान तो सरलता से उपलब्ध है फिर भी हमारे बोध में नहीं आ पता है। इसका क्या कारण है? जो कारण दिखाई देता है– वह है शरीर और मन से आसक्ति। क्योंकि जो दिखाई देता है वह तो केवल भौतिक शरीर है। जिसके जागने से यह भौतिक शरीर मालूम पड़ता है, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यहां हम मन को सुक्ष्म शरीर से उपयोग कर रहे हैं। यह सुक्ष्म शरीर ही है जो भौतिक शरीर को अनुभव कर रहा है, महसूस कर रहा है।
हम-अधिक स्थूल शरीर को ही महत्व देते हैं। सुक्ष्म को कम देते है पर सुक्ष्म शरीर का महत्व स्थूल से ज्यादा है। सुक्ष्म शरीर भी अंत में मिट जाता है– कारण शरीर ( अस्तित्व ) में मिल जाता है और फिर पुनः प्रकट होता है। जैसे– बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष | इसी प्रकार स्थूल व सुक्ष्म शरीर कारण में विलय, कारण से उत्पन्न होते हैं। सुक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि) अज्ञानता वश रोज कारण में विलीन होते हैं–गहरी नींद में। पुन: निकल आते हैं।
यहां कार्य सुक्ष्म और स्थूल है और सुसुप्ति कारण है। जो कारण और कार्य कोई भी नहीं है वह चेतन(दृष्टा) है। दृष्टा न तो कार्य है न ही कारण है वह तो इन दोनों को देखने वाला है। इसका महत्व न के बराबर है, क्योंकि मनुष्य स्थूल शरीर का ही लाभ (उपयोग), आनंद ले रहे हैं, इसके न रहने पर दुख देख रहे हैं। ऐसा सभी के साथ है । कोई ज्ञानी अगर देह भाव से मुक्त भी हो तो भी उस पर आश्रित लोग तो दुख पाते हैं - क्योंकि वो तो उनसे लाभ ले रहे थे। अतः देह को ही सत्य माना गया है |
जब यह पता चलता है कि इस स्थूल और सुक्ष्म के मिटने पर भी यह दृष्टा /चेतन्य सदा रहता ही है। पर इसके होने का आंनद नहीं ले पा रहे हैं। दृष्टा ही परमसत्य है, परमानंद है पर उसका लाभ न ले पाना, इसके महत्व को कम करता है। अब इस आनंद को कैसे पाना है इसको हम देख सकते हैं।
इस पर क्रम से चल सकते हैं:
१. स्थूल से सुक्ष्म में ज्यादा आनंदित रहें।
पदार्थ तो क्षणीक रूप से ही चाहिए, जैसे- रोटी कपडा और मकान– जिससे स्थूल शरीर चलता रहे । जब स्थूल इच्छाएँ पूर्ण हैं, तब आपके पास जो खाती समय है- क्या आप तब प्रसन्न हो ?
जब एकांत में हो तो क्या प्रसन्न हो ?
अपने आप प्रसन्न हो ?
जब शरीर की ज़रूरत पूरी हो तो पीछे रह जाता 'मन', चित्त, सुक्ष्म शरीर | इसको सुख की भुख है, इसको प्रसन्ना चाहिए - यह सुख की तरफ जाता है। अब आपको यह चित्त खोज में भेजेगा । यहाँ से मार्गों की आवश्यकता का उदय होता है– संसार या आध्यात्म।
अगर मन सुख के लिए बाहर जाता है तो संसार का निर्माण करता है। और यही वृत्ति संसार को विस्तार देती है। संसार में कोई सुख पूर्ण नहीं है, यह तो हम सबका अनुभव है। इस पर अधिक क्या कहना।
२. सुक्ष्म से ज्यादा चेतना में आनंदित रहें। यहाँ भी मार्गों की व्यवस्था है:
१. प्रेम (भक्तिमार्ग) गुरु से
२. बोध ( ज्ञानमार्ग) गुरु ज्ञान से
दोनों का अंतिम परिणाम आत्मज्ञान और आनंद है।
आत्मज्ञान और समर्पण से ज्ञानी और भक्त दोनों ही आत्म आनंद को पा सदा खुश रहते हैं।