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रविवार, 6 फ़रवरी 2022

अवस्थाओं के पार, स्वयं का सार

      जाग्रति, निद्रा और सुषुप्ति का ज्ञान हमको होता है, प्रतिदिन। इनका ज्ञान होने के लिए हमारे पास हैं दस इंद्रियां और अंतःकरण। कुल १४ गुण हैं।

दस इंद्रियां मे पहले हैं –पांच कर्मेंद्रियां 

दूसरा– पांच ज्ञानेंद्रियां 

उसके बाद है अंतःकरण यह आंतरिक इंद्रियां कहलाती हैं। यह ४ प्रकार से हैं: मन, बुद्धि, चित, अहंकार।

इसके आधार पर चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रति, निद्रा, सुषुप्ति को समझ सकते हैं।

     जाग्रत अवस्था - वो अवस्था है चेतना की जिसमें सभी १४ इंद्रियां सक्रिय हैं। 

यहां जब कुछ आया हमारी इंद्रियों की पकड़ में - रंग, रूप, रस, गंध, शब्द और ये इन्द्रियों के द्वार भीतर प्रवेश करते हैं, फिर भीतर आयी जानकारी पर अंतःकरण क्रिया द्वारा एक रचना का निर्माण कर दिया जाता है। अब जो रचना हुई है उसको हम अनुभव कहते हैं। इन अनुभवों से, या इसके आधार पर हम कर्म करते हैं।

     अब हमारा अहम (अहंकार) अगर अनुभवों से या उसके फलों में बहुत आशक्त है तो फिर ये जो अहम है, इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करता कि बाहर से कुछ सामग्री आए, फिर मैं उससे क्रिया करके अनुभव बनाऊ। वह पहले से मिले अनुभवों और अनुभवों पर आधारित स्मृति से कल्पना का उपयोग करके कुछ - न –कुछ अनुभव तैयार कर लेता है - इस अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं।

     जागृत अवस्था में तो अनुभवों का निर्माण करने में इन्द्रियों का सक्रिय होना जरूरी है। 

       जैसे पैसों से संबंधित अनुभव के लिए आपको पैसो का देखना, छुना या पैसों के बारे में बातचित होना जरूरी है। 

       परंतु स्वप्न में इन्द्रियों का जागृत होना जरूरी नहीं है। यहाँ अहम् धन संबंधित कल्पना करके, अपने धन संबंधित अनुभवों को भोग लेता है। ये अहम् की कोशिश है अनुभवों को भोगने की जिसको वो जाग्रत में न कर (भोग) पा रहा है।


      अब तिसरी है- सुषुप्ति - इस अवस्था में अहम् - अपने होने मात्र से ही संतुष्ठ हो जाता है। यह अवस्था बहुत आनंद देती है, पर यह पूर्णतया स्थिर नहीं है –अनित्य है। यह समाधी के जैसी है, पर अपूर्ण है, अज्ञान ही है।

     इसके आगे है तुरीय, यह कोई अवस्था नहीं है, यह तीनों अवस्थाओं के प्रति अरुचि है। यह है - अनुभवों और उसके फलों के प्रति अरुचि, अनाशक्ति। इसको ही साक्षी, चेतना कहते हैं।

     अब आपको साक्षी होने के लिए कोई - कर्म, ध्यान, साधना करने की जरूरत है? —नहीं!!! केवल अनुभवो और अनुभव के फलों के प्रति आशक्त नहीं होना है।


मन आदिचतुर्दशकरणैः पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान्-स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणम्।

तद्वासनासहितैश्चतुर्दशकरणैः शब्दाद्यभावेऽपि वासनामयाञ्छब्दादीन्यदोपलभते तदात्मनः स्वप्नम्।

चतुर्दशकरणो परमाद्विशेषविज्ञानाभावाद्यदा

शब्दादीन्नोपलभते तदात्मनः सुषुप्तम्।

अवस्थात्रयभावाभावसाक्षी स्वयंभावरहितं

नैरन्तर्यं चैतन्यं यदा तदा तुरीयं चैतन्यमित्युच्यते। ॥४॥


"देवों की शक्ति द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और दस इन्द्रियाँ- इन चौदह करणों द्वारा आत्मा जिस अवस्था में शब्द, स्पर्श, रूप आदि स्थूल, विषयों को ग्रहण करती है, उसको आत्मा की जाग्रतावस्था कहते हैं। शब्द आदि स्थूल विषयों के न होने पर भी जाग्रत स्थिति के समय बची रह गई वासना के कारण मन आदि चतुर्दश करणों के द्वारा शब्दादि विषयों को जब जीव ग्रहण करता है, उस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं। इन इन्द्रियों के शांत हो जाने पर जब विशेष ज्ञान नहीं रहता और इन्द्रियाँ शब्द आदि विषयों को ग्रहण नहीं करतीं, तब आत्मा की उस अवस्था को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं की उत्पत्ति और लय का ज्ञाता और स्वयं उद्भव और विनाश से सदैव परे रहने वाला जो नित्य साक्षी भाव में स्थित चैतन्य है, उसी को तुरीय चैतन्य कहते हैं, उसकी इस अवस्था का नाम ही तुरीयावस्था है।"

 सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ४

रविवार, 16 जनवरी 2022

आत्मसाक्षात्कार किसका ?

         आत्मसाक्षात्कार का अर्थ ये नहीं की आत्मा (अनुभवकर्ता) का साक्षात्कार होता है । बल्की यहाँ अर्थ उल्टा है कि है: मन और शरीर का साक्षात्कार होता है। अर्थ है–माया का साक्षात्कार करना।
यहाँ कभी –कोई आत्मा (अनुभवकर्ता) का दर्शन नहीं होता। कोई रोशनी नहीं, कोई हीरा नहीं, कोई दिव्य ज्योति नहीं।

        खुद को देखने का अर्थ है- अपनी वृत्तियों को देखना, अपने आंतरिक छल-कपट को देखना, बुराइयों को देखना | 
        कौन है, जो देखना चाहता है, अपनी वृत्तियों को? 
        कौन है जो अंदर के दानव को देखना चाहता है ? अपनी वृत्तियों को देखना ही आत्मसाक्षात्कार है। 
बहुत संभावना है कि इसमें आपको कोई बहुत बढ़िया या चमत्कारी बात नहीं मिले।

        अपनी वृत्तियों को देखना कष्टप्रद हो सकता है | पर देखने पर ही उनसे उपर उठने की संभावना पाई जा सकती है। जिसे ठीक- ठीक दिख रहा है कि वो कितना बंधन में है, कौन सा विचार आ रहा, कहां से आ रहा है, कौन उस कर्म का मालिक है- वो मुक्त है; क्योंकि जिसने देख लिया वो उस विचार से, कर्म से बच सकता है–यही मुक्ति है। यही चेतना है।

       आत्मा का कोई रूप, रंग, आकार और समय में कोई आस्तित्व नहीं है। आत्मा में/ से सब है, पर सब मे आत्मा नहीं।

        जिस क्षण में माया को माया देख लिया, ठीक उस क्षण में ये देखने वाला कौन है ? ये देखने वाला उस क्षण में स्वयं सत्य है।  झूठ –झूठ को, अंधेरा - अंधेरे को नहीं पकड़ सकता । किसी चीज को पकड़ने के लिए कुछ ऐसा चाहिए जो बिल्कुल उससे भिन्न हो। जिस आदमी ने अपने अंदर के किचड़, कबाड़, शोक, दुख को देख लिया वो उससे भिन्न हो गया। मुक्त हो गया।

        आत्मसाक्षात्कारी देखता तो है माया को, और एक होता जाता है –आत्मा से। 
क्योंकि जब आत्मा होती है आखों के पीछे तो तुम माया को पकड़ लेते हो। अगर उल्टा हुआ और आखों के सामने आत्मा, परमात्मा, प्रकाश दिखे तो फिर माया पीछे है। ये माया का खेल है।
ज्ञान आनंद
https://t.me/gyananand

रविवार, 2 जनवरी 2022

चेतना और शरीर

हमारे सबसे करीब हमारा शरीर है, और साधक की सबसे बड़ी चुनौती भी ये शरीर है। 
    शरीर को ही सत्य मान लिया है, ऐसे लोगों के बीच ही हम जन्म लेते हैं और फिर इसके अधीन हो जाते हैं, शरीर को सुख देने में ही लग जाते हैं।

पर क्या हम केवल शरीर है, नहीं; हम एक चेतना(चैतन्य) हैं और इस शरीर के साथ जुड़े हैं। 
        यही कारण है कि हम शरीर की गतिविधियों, इसके इंद्रिय वृत्ति को बन्द नहीं कर सकते हैं। जिसने भी इसको नकारा है –वो धोखे में है। कभी कभी ये शांत होता है(जान पड़ता है) तो ये ना समझे कि इसको जीत लिया। ये कभी भी आपको गिरा सकता है, कभी भी किसी विकार को प्रकट कर सकता है, जैसे –क्रोध, ईर्ष्या, आलस, कामना।

      वास्तव में हम चैतन्य हैं, हमे चेतना को विकसित करना है। इसके लिए ही गुरु, ज्ञान, ज्ञान मार्ग है। 
        पर बिना शरीर और चेतना को समझे कोई मार्ग पर नहीं बढ़ सकता। यहां कोई चमत्कार नहीं होने वाला है। कोई मनजीत नहीं है, कोई कर्मजीत नहीं है। केवल अज्ञान को दूर कर सकते हैं और चेतना को विकसित किया जा सकता है। यही अध्यात्म का मक़सद है, कुल परिणाम है।

*ज्ञान आनंद वार्ता टेलीग्राम सेवा में आप प्रश्न कर सकते हैं।
🙏

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

आत्म ज्ञान से कर्म निवृत्ति


           व्यक्ति को प्रकृति से उपहार स्वरूप अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इन गुणों को उपयोग कर कर्म करना होता है। कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। ना चाहने पर भी अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
यह अनुभवकर्ता का स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है। सदैव अनुभव को देखने में लगा है। अतः आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए खुद(मन) को अच्छे अनुभवों (सत्कर्म) में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा। माया के संसर्ग में आकर भौतिक जगत से जुड़ाव प्राप्त कर लेता है और इससे उत्पन्न सूख दुःख को भोगने वाला बन जाता है। किन्तु यदि आत्म स्वरूप, आनंद से उत्पन्न अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

           "यदि कोई आत्म ज्ञानी शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी। किन्तु यदि कोई शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और आत्म ज्ञान न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?" संन्यास या कोई भी पद्धति आत्म ज्ञान के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है।

            मान लो कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं, जो चेतना में कार्य तो नहीं करते, किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं।

              आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है, वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है, जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।

             अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

🌼 बोध और चेतना 🌼

              अब तक हमने जाना की आनंद ही जीवन की सबसे बड़ी चाह है। इस चाह की पूर्ति आत्म ज्ञान से ही संभव है। चेतना आत्मा का लक्षण है। चेतना को विकसित करना ज्ञान मार्गी का लक्ष्य है। अब हम देख सकते है कि उन्नति कितनी हुई है। इसके लिए हमे इन सरल सवालो को जांचना है। ऐसा ही सवाल अर्जुन ने गीता में भगवान श्री कृष्ण से पूछा था।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ५४॥ (भगवतगीता)

          अर्जुन ने पूछा- हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है ?

               जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के उसकी विशिष्ट स्थिति के अनुसार कुछ लक्षण होते हैं उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष का भी विशिष्ट स्वभाव होता है यथा उसका बोलना, चलना, सोचना आदि। जिस प्रकार धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते हैं, जिनसे वह धनवान जाना जाता है, जिस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना जाता है या कि विद्वान् अपने गुणों से विद्वान् जाना जाता है, उसी तरह आत्म की दिव्य चेतना से युक्त व्यक्ति अपने विशिष्ट लक्षणों से जाना जा सकता है। इन लक्षणों में सबसे महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञानी व्यक्ति किस तरह बोलता है, क्योंकि वाणी ही किसी मनुष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है। कहा जाता है कि मूर्ख का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं। एक बने-ठने मूर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जब तक वह बोले नहीं, किन्तु बोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। चेतना युक्त व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल सत्य तथा उन्हीं से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है। फिर तो अन्य लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं। 

                 जो मनुष्य चेतना में होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाये जाते हैं, किन्तु जो व्यक्ति चेतना में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने चित्तवृत्ति पर ही आश्रित रहता है। व्यक्ति को चित्तवृत्ति द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है। कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं। किन्तु यदि कोई ज्ञान मार्ग से चेतना जागृति में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएँ स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं। अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के चेतना की ओर चलना होगा। अत्यधिक उन्नत जीव (मुनि) अपने में आत्मतुष्ट रहता है। ऐसे आध्यात्मिक पुरुष (मुनि) के पास भौतिकता से उत्पन्न एक भी विषय-वासना फटक नहीं पाती। वह अपने सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है।

                मुनि शब्द का अर्थ है वह जो शुष्क चिन्तन के लिए मन को अनेक प्रकार से उद्वेलित करे, किन्तु किसी तथ्य पर न पहुँच सके। कहा जाता है कि प्रत्येक मुनि का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और जब तक एक मुनि अन्य मुनियों से भिन्न न हो तब तक उसे वास्तविक मुनि नहीं कहा जा सकता। स्थितधी: मुनि सदैव चेतना में रहता है क्योंकि वह सारा सृजनात्मक चिन्तन पूरा कर चुका होता है। जिसने शुष्कचिन्तन की अवस्था पार कर ली है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि आत्म, ब्रह्म ज्ञान ही सब कुछ हैं वह स्थिरचित्त मुनि कहलाता हैवह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता। राग का अर्थ होता है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है ऐसी ऐंद्रिय आसक्ति का अभाव। 

               भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा। जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से अप्रभावित रहता है उसे चेतना में स्थिर समझना चाहिए। जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंद्वों) से पूर्ण है। किन्तु जो चेतना में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार अपने आत्म आनंद से रहता है। इस प्रकार मनुष्य ऐसी चेतना पूर्ण स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं।

शनिवार, 11 सितंबर 2021

आनंद सूत्र

मनुष्य के दुःख मूल क्या है। 
             विचार –विचार सतत चलने वाली क्रिया है । 

यह आपके दुःख कारण कैसे है?
            विचार जब तक हैं, वो गतिमान ही रहेंगे – यही इसका गुण है। अब विचार कैसे भी प्रकट हो सकते हैं- अच्छे, बुरे, सच्चे –झूठे। अब अगर आपके विचार के अनुसार आपका कार्य नहीं होता तो दुःख या कार्य के अनुसार आपके विचारो का गठन नहीं होता तो दुःख। 

एक मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा क्या है - चाहे वो कोई भी हो ?
           इन विचारों से मुक्ति या इन विचारों पर जय।

क्या यह संभव है ?
            संभव है । 

सूत्र क्या है ?  सत्य का सँग !!
           दुखी व्यक्ति का सत्संग तक पहुंचना भी कठिन जान पड़ता है। क्योंकि माया का परदा पड़ा है –आसा का। एक आस बांध रहती है कि जहां आज दुःख है वहा कल सूख होगा। यह मृगजल जैसा है दिखाई देता है ; कि पानी है, परंतु जब वहां जाओगे तो वहां नहीं है, किसी और जगह है। ऐसी ही स्थिती मानव जाति की है।
ऐसे मृगजल की भ्रांति से ग्रस्त व्यक्ति को केवल यह बोध कि यह मृगजल है सत्य नहीं– बचा सकता है। 

यह बोध कैसे हो ?, 
          बोध प्राप्त व्यक्ति ही ऐसा बता सकते हैं, उनको हम गुरु कहते हैं। गुरु आपको बोध कराते है - सत्य का और आगे बढ़ जाते हैं। 

बोध की विधि क्या है ? 
 १. श्रवण : सुनना /देखना
              जिसकी बुद्धि प्रखर है, प्रज्ञा तेज है, उनको केवल सुनना/ देखना ही प्रयाप्त है। ठीक से सुनने/देखने पर ही बोध हो जाएगा। जैसे मछुआरों को लहर देख कर ही तूफान आएगा या नहीं पता चल जाता है। जैसे अग्नि को देखते ही उष्णता का पता चल जाता है।

२.मनन:
           अब अगर तीव्र प्रज्ञा नहीं है तो फिर मनन कुंजी है| मनन भी विचारों के समान ही एक स्तत क्रिया है। पर यह एक ही दिशा में गतिमान है ।
गुरु से प्राप्त ज्ञान को श्रवण करना है, फिर ज्ञान को अनुभव तक पकाने के लिए तर्क और विवेक की अग्नि पर चढ़ाना है।

३. निधिध्यासन:
             यह एक मास्टर चाबी है। इससे काम बनने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ पर हम गुरु से सुने ज्ञान पर मनन कर उपलब्ध हुए अनुभव को उपयोग करते हैं। यह, अंतिम विधि है। जब ज्ञान से उपजे अनुभव को आप प्रयोग करते | यही सतत समाधी में है। 

      सारी क्रिया ऐसे है, जैसे, पहली बार खाना बनाने की कोशिश: 
१. सुना/ देखा– कैसे-कैसे बनाते हैं और आ गया। 
२. कोशिश (मनन) –खुद तैयारी की और बनाने का प्रयास किया जब तक सही से नहीं बना।
३. आनंद - एक बार सिख लिया कैसे बनाते हैं फिर सदा के लिए सिख लिया | अब बनाना है और खाना है –आनंद है।

           एक बार पुन: अपने प्रश्न को देखते है विचारों का भार है, दुख है । सुख - आंनद कैसे मिले
उत्तर है– असत्य का नाश कर दें | 
कैसे ?
सत्य के प्रकाश से।
सनातन सत्य: जो परिवर्तन करता है वह असत्य है। इसका श्रवण हुआ, ज्ञान प्राप्त हुआ।

मनन: परिवर्तन करने वाली सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, भावनाओ को तर्क और विवेक से जांचना और परिवर्तनीय में छिपे अपरिवर्तनीय के बोध को जानना।

निधिध्यासन: सतत इस बोध का उपयोग करना। चेतना में जीना है। यही साक्षी बोध है। साक्षी की अवस्था में आपको विचारों का भार नहीं है। आप विचारों के दृष्टा हैं। यही परमानंद अवस्था है।

बालवत स्वभाव को कोन समझेगा ।
जो खुद खो गया उसको कोन खोजेगा।।
मोन से टकरा रहा है आनंद, पर जिसे 
कहा ना जा सके उसे कोन कैसे कहेगा?
मन मयूर की प्यास बुझा दे।
हे गुरु मोहे परमआनंद पिला दे।।

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

आपका अनुभव ही आपका सत्य है

          किसी व्यक्ति का जो अनुभव है वह उस व्यक्ति के लिए– क्या सत्य है, क्या असत्य है, निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है। यहां अस्तित्व (जगत) में जो भी हो रहा है, जितना उसकी बुद्धि में आया, वह उसका अनुभव है और यही अनुभव उसके लिए सदा सत्य होता है।
यहां अनुभव के तीन प्रकार हैं:
१. जगत का अनुभव– जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा होता है।
२. शरीर का अनुभव– जिसका अनुभव आधा इंद्रियों द्वारा और आधा मानसिक रूप से होता है।
३. चित्त यह एक निजी व्यक्तिगत (मानसिक) अनुभव है जैसे कि विचार, भावना, कल्पना और यह चित्त में ही अनुभव होता है। 
      
          जगत, शरीर और मन जब एक रुप में बताने हों तो उन्हें चित्त कह सकते हैं। चित्त एक स्तरीय रचना है। यह सभी नाद रचनाए हैं और सभी अनुभव चित्त के अनुभव हैै। अनुभव अस्तित्व से उत्पन्न होता है और अस्तित्व में ही लोप होता है। यह बुद्धि के अंदर है अतः इसको जाना जा सकता है।  

          जब सभी को अनुभव हों रहें हैं , सभी ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं, तो फिर यहां दुख और संताप क्यों है? क्योंकि हम किसी अनुभव को सदा के लिए एक जैसा रखना चाहते हैं। और किसी भी अनुभव से आसक्ति होने पर बंधन का जन्म होता है। अब ये बंधन ही आपको कर्म, कर्म फल, सुख और दुख से गर्सित करते हैं। यह चित्त का दोष है, इस दोष के कारण अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त ज्ञान अपनाया नहीं गाया है। यही हमारा अज्ञान है।

           अनुभवकर्ता (आत्मा) के सिवा अन्य किसी भी अनुभव से आसक्ति बंधन है, गुरु आप को बंधन में से मुक्त रूप दिखा सकता है। इस बोध से आप मुक्त हो ऐसा जान सकते हैं। 
    
            अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त यह सत्य व्यवस्थित तरीके से संयोजित होने पर संस्कार रूप में चित्त में ज्ञान बन कर प्रकट होता है। स्वयं का अनुभव ही ज्ञान है। आत्मनुभ्व ही पूर्ण–ज्ञान है।

            आप सदैव से मुक्त हैं, बस आपने बंधन को अपना मान लिया है, इसके बोध (छूटने) पर यह सत्य सवतः ही प्रकट हो जाएगा। सत्यम शिवम् सुंदरम का उदघोष सत्यापित हो जाएगा।


सोमवार, 6 सितंबर 2021

ज्ञानमार्ग से आनंद की ओर

        मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ बैचेन है, दुखी है, संताप में है। और यहाँ - वहाँ सुख  की तलाश में भटक रहे हैं। आप भटक हैं- कभी वस्तुओं से सुख की आस में, कभी स्त्री या रिश्तों से सुख की आस में | यह वस्तुओं और मनुष्यों से सुख की प्यास बुझाने का प्रयास ही "संसार" के उदय का कारण है । यह संसार कहीं बाहर नही है - हम सबके अंदर ही है। जब आपके अनंत प्रयास के बाद भी आपको सुख की प्राप्ती नहीं होती और अगर सुख मिलता भी है तो कुछ देर बाद ही उससे दुख मिलने लगता है। जैसे आपको कोई भोजन बहुत प्रिय है, और आपको वही भोजन हर रोज, हर बार मिले तो आप उससे दो- तीन दिन में ऊब ही जाते हैं, उससे उपर जाने पर आपका प्रिय भोजन भी ज़हर समान हो जाता है। 
  
      इसके विपरीत भी आप सुख की खोज में भटक रहे हो सकते हैं, अगर संसार के दुख से दुखी हो आप दूसरी ओर भाग सकते हैं–अब आप सुख की कामना से वस्तुओं का त्याग करते हैं, स्त्री-रिश्तों का त्याग कर संसार से संन्यास की ओर भागते हैं, परंतु सुख मिलेगा नहीं क्योंकी मूल में तो वही कमाना है जो संसार को जन्म देती है। इन सभी क्रियाओं और कर्मों का फल शायद कुछ भी ना निकले।

      आनंद का उदय आपके अंदर ही होता है। वह ऐसा रस है जो कि किसी वस्तु-विषय पर निर्भर नहीं है। आनंद की तलाश आपको अंदर की ओर मोड़ती है तब जीवन में आध्यात्म का जन्म होता है। अपने स्वरूप के ज्ञान को ही आध्यात्म कहते हैं। इस ज्ञान /बोध से ही आनंद की प्यास बुझती है। इस परमानंद अवस्था तक पहुंचने के कई मार्ग हैं: भक्ति मार्ग, योगमार्ग (कर्म मार्ग ) और, ज्ञानमार्ग।

      हर मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग पर अपने से ज्यादा अनुभवी गुरु की जरूरत पड़ती है । अत: इसके लिए आपको अपनी यात्रा जीवित गुरु से शुरू करनी है। बिना जीवित गुरु के आपका प्रयास विफल हो जाएगा या छोटे बच्चे की बकवाद के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

      ज्ञानमार्ग बाकी मार्गों में सबसे छोटा और सरल है। परंतु इस मार्ग पर गति करने के लिए आपको मुमुक्षु होना चाहिए और थोड़ी समझ - बुद्धि होनी चाहिए।
     
      ज्ञानमार्ग पर हम अद्वैत को साधते हैं अपने - प्रत्यक्ष अनुभवो द्वारा; प्रत्यक्ष अनुभव (स्वयं का अनुभव) ही आधार है। इस मार्ग पर चलते हुए हम अपनी विवेक– बुद्धि को बढ़ाते हैं और तर्क से इस महास्वप्न के आधारों को काटते है और उसके मिथ्या होने की घोषणा करते हैं।  

      ज्ञान से हम जानते हैं कि जो परिवर्तन हो रहा है वह शाश्वत नहीं है। शाश्वत केवल एक ही है जिसको हम अनुभवकर्ता/ साक्षी या "मैं" कहते हैं। साक्षी /अनुभवकुर्ता वह है जो सबका अनुभव कर रहा है, या जो सब देख रहा है पर प्रभावित नहीं होता है। इस साक्षी अनुभवकर्ता का निरंतर बोध ही चेतना कहलाती है। इस साक्षी की उपस्थिती का आलंबन ही मोक्ष है, मुक्ती है । यह स्थिती ही आनंद की स्थिती है। यही पूर्णम शून्यम सत्यम का उद्घोष है।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...