गुरु लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गुरु लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

आत्म ज्ञान से कर्म निवृत्ति


           व्यक्ति को प्रकृति से उपहार स्वरूप अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इन गुणों को उपयोग कर कर्म करना होता है। कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। ना चाहने पर भी अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
यह अनुभवकर्ता का स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है। सदैव अनुभव को देखने में लगा है। अतः आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए खुद(मन) को अच्छे अनुभवों (सत्कर्म) में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा। माया के संसर्ग में आकर भौतिक जगत से जुड़ाव प्राप्त कर लेता है और इससे उत्पन्न सूख दुःख को भोगने वाला बन जाता है। किन्तु यदि आत्म स्वरूप, आनंद से उत्पन्न अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

           "यदि कोई आत्म ज्ञानी शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी। किन्तु यदि कोई शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और आत्म ज्ञान न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?" संन्यास या कोई भी पद्धति आत्म ज्ञान के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है।

            मान लो कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं, जो चेतना में कार्य तो नहीं करते, किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं।

              आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है, वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है, जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।

             अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

💮 चेतना मुक्ति द्वार 💮

               कोई जीव माता के गर्भ से जन्म लेता है। फिर बालक रूप में रहता है, फिर युवान और फिर धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त जाता है । इस काल– क्रम से हम सभी परिचित हैं। यह जानकर भी मनुष्य अपने सीमित समय का उपयोग अपने उत्थान के लिए नहीं करता – यह महा आश्चर्य है !!
 
               मनुष्य अपने शरीर को ही सत्य मानकर, मान- अपमान, दुख-सुख, जन्म - मृत्यु के भय से आक्रत रहता है। शरीर तो परिवर्तनशील है ऐसा हमने पहले जाना है, परंतु उसके अनुभव की शक्ति तो शरीर की स्थितियों के साथ नहीं बदलती, वह तो एक सी ही रहती है। अतः यह भी स्पष्ट है कि वह शरीर से अलग कुछ अपरिर्वतनशील शक्ति भी है। इस अपरिर्वतनशील शक्ति को हम अपना मूल तत्व कहते हैं - अनुभवकर्ता /आत्मा कहते हैं।

               यह अनुभवकर्ता शरीर के, मन के सभी प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है। सभी प्रकार से जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त है। इसकी उपस्थिति को जानने वाला सदा मुक्त और शांत है। 

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 

(श्लोक २० गीता)

            मैं/ अनुभवकर्ता/ आत्मा – के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |

              अनुभवकर्ता/आत्मा का यह ज्ञान चेतना से उपलब्ध होता है। चेतना ही आत्मा / अनुभवकर्ता का लक्षण है। चेतना को जगाना ही एक ज्ञानमार्गी का लक्ष्य है। यदि कोई आत्मतत्व को न खोज पाता है तब भी वह आत्मा/ अनुभवकर्ता की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। जैसे कभी कभी बादल आकाश में सूर्य को छुपा देते हैं, परन्तु सूर्य तो सदा आकाश में रहता ही है। बादलों के हट जाने पर यह प्रमाणित हो जाता है।

             ज्ञानमार्ग में हम यह ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और चेतना के विकास को प्राथमिकता देते हैं। जब चेतना सक्रिय होती है तो अनुभवकर्ता की उपस्थिति जान लेते हैं। यहां समस्या यही है की मनुष्य की चेतना विस्मरणशील है, इस कारण जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। तो उसके कल्याण के लिए गुरु ज्ञान प्रकट होता है, "गुरु" के उपदेशो से आत्म–कल्याण की शिक्षा और बोध प्राप्त होता है। 


शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

आनंद में रहने की सरल विधि

        खेल– आनंद में रहने की सबसे सरल विधि है। आप बच्चो को देख सकते हैं, जब वो खेल में मगन होते हैं तो कैसे आनंद में रहते हैं!! खेल में मगन बच्चो को न भूख है, न ही गर्मी सर्दी। न कोई मान सम्मान न ही कोई मित्र न ही शत्रु। और आपने सुना भी होगा कि "संसार खेल मात्र है परमात्मा का"।

       अगर आपका जीवन में से ये खेल का सूत्र गायब है तो फिर आपका जीवन आपको बहुत बोझिल लगेगा, थकाने वाला लगेगा। संसार का सार केवल यहीं है कि ये सब बस माया का खेल है। अगर आप खेल को खेल ही जान कर खेल रहे हैं तो आप सदा खुश रहते हैं।

       मनुष्य की सबसे बड़ी परेशानी यही हुई है कि वो खेल को खेल नहीं बल्कि चुनौती समझ गया है, खेल में जीत और हार को मूल्य दे रहें हैं और दुख ले रहें हैं।

        गुरु की जरुरत केवल यही समझाने के लिए है कि आप थोड़ा रुक कर देख लो कि ये बस खेल है, कोई और इसका मकसद नहीं है। खेल का आनंद लो। 

छोड़ो क्या करना है आत्मा का, परमात्मा का।

पहले खुद को ठीक से जान लो। खेल को पहचान लो। और आनंद में आगे बढ़ जाओ।

सोमवार, 20 सितंबर 2021

गुरु –आईना

          आईना एक ऐसा शीशा है जो उस पर पड़ने वाली रोशनी को वापस परिवर्तित कर देता है। सबके घर में आईना तो उपलब्ध ही होता है। अध्यात्म में इस आईने का बहुत महत्व है। अगर आप देखें ठीक से तो आपको पता चलेगा की जो भी आईने के सामने आता है, आईना उसे वही दिखाता है; जो भी उसके सामने है, अब अगर आईने के सामने मानिए टमाटर है –तो आईना टमाटर दिखाएगा, आईने के सामने कोई बच्चा खड़ा है –तो आईना बच्चा ही दिखाएगा, आईने के सामने कोई जवान है –तो जवान ही दिखाएगा। आईने के सामने कोई वस्तु है तो आईना वही दिखाएगा। 
         
         यही इसकी खूबी है कि आईने के जो भी सामने पड़ जाए वही उपस्थित होता है, कोई बदलाव नहीं : ठीक वैसा– जैसा है। अध्यात्म से देखें तो आईना आपका अनुभवकर्ता है/ आत्मा है। यहां जो भी सामने आता है वही प्रकट होता है, अनुभव होता है। आईना सब को देखता तो है पर किसी भी परिस्थिति से खुद को जोड़ता नहीं है; कोई बच्चा सामने था तो बच्चा दिखा दिया, बड़ा सामने आता है तो बड़ा दिखा दिया और कोई चला गया तो चला गया आईना मौजूद है। आईना कभी पीछे नहीं भागता कि बच्चा मुझे पसंद आया, यह जवान मुझे पसंद है, कोई भी वस्तु मुझे पसंद है। ठीक है, जो सामने है दिखा दिया नहीं तो अपने आप में मौजूद रहता है। यही हमारा गुण होना चाहिए, यही हमारा स्वभाव होना चाहिए। संसार सामने दिखता तो है, उपस्थित तो है, दिख तो रहा है पर जहां पर उसका प्रतिबिंब दिख रहा है, छाया प्रगट है उतनी ही जगह पर दर्पण भी तो उपलब्ध है। दर्पण है पर वह प्रभावित नहीं होता। यह हमारा लक्ष्य है । जब हम आईने के सामने होते हैं तो हमें हमारा स्वरूप दिखाई देता है, उसका बोध हमें पता चलता है। वहां उस आईने के सामने हम खुद को ठीक से देख सकते हैं, संवार सकते हैं। अपनी की हुई त्रुटियों को हटा सकते हैं। इसीलिए तो आईना इतना महत्वपूर्ण है, जो आपको आपका स्वरूप खराब है, या आप सुंदर है बता देता है। आपने अपना स्वरूप देख लिया है, उस का बौध हो गया। अब आईने का काम खत्म अब आप आईने के सामने से हट जाते हैं, आपको पता है कि आप क्या हैं?

       अध्यात्म में गुरु ही वह आईना है जो कि हमें हमारे मूल स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इसी वजह से हमें गुरु के सानिध्य में इतना आनंद आता है, क्योंकि हम गुरु के सानिध्य में अपना ही स्वरूप देख रहे हैं, खुद को ही जान रहे हैं। इसी वजह से हम गुरु के सानिध्य में आनंद पाते हैं, क्योंकि हमें हमारे स्वरूप का बोध होता है और एक बार बोध हो जाने पर हम आगे निकल सकते हैं और आईने के सामने कोई और खुद के दर्शन कर सकता है। गुरु के अंदर इतना भी प्रयास नहीं होगा कि, आप कहें– जाना चाहते हैं, आप जाएं। आपने ले लिया, आपने जान लिया – आपका रूप क्या है, स्वरूप क्या है? 
सभी साथियों से निवेदन है– एक बार गुरु आईने के सामने आए अपना स्वरूप देखें और स्वयं अपने अंदर आनंद को प्रकट कर लें।

शनिवार, 11 सितंबर 2021

आनंद सूत्र

मनुष्य के दुःख मूल क्या है। 
             विचार –विचार सतत चलने वाली क्रिया है । 

यह आपके दुःख कारण कैसे है?
            विचार जब तक हैं, वो गतिमान ही रहेंगे – यही इसका गुण है। अब विचार कैसे भी प्रकट हो सकते हैं- अच्छे, बुरे, सच्चे –झूठे। अब अगर आपके विचार के अनुसार आपका कार्य नहीं होता तो दुःख या कार्य के अनुसार आपके विचारो का गठन नहीं होता तो दुःख। 

एक मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा क्या है - चाहे वो कोई भी हो ?
           इन विचारों से मुक्ति या इन विचारों पर जय।

क्या यह संभव है ?
            संभव है । 

सूत्र क्या है ?  सत्य का सँग !!
           दुखी व्यक्ति का सत्संग तक पहुंचना भी कठिन जान पड़ता है। क्योंकि माया का परदा पड़ा है –आसा का। एक आस बांध रहती है कि जहां आज दुःख है वहा कल सूख होगा। यह मृगजल जैसा है दिखाई देता है ; कि पानी है, परंतु जब वहां जाओगे तो वहां नहीं है, किसी और जगह है। ऐसी ही स्थिती मानव जाति की है।
ऐसे मृगजल की भ्रांति से ग्रस्त व्यक्ति को केवल यह बोध कि यह मृगजल है सत्य नहीं– बचा सकता है। 

यह बोध कैसे हो ?, 
          बोध प्राप्त व्यक्ति ही ऐसा बता सकते हैं, उनको हम गुरु कहते हैं। गुरु आपको बोध कराते है - सत्य का और आगे बढ़ जाते हैं। 

बोध की विधि क्या है ? 
 १. श्रवण : सुनना /देखना
              जिसकी बुद्धि प्रखर है, प्रज्ञा तेज है, उनको केवल सुनना/ देखना ही प्रयाप्त है। ठीक से सुनने/देखने पर ही बोध हो जाएगा। जैसे मछुआरों को लहर देख कर ही तूफान आएगा या नहीं पता चल जाता है। जैसे अग्नि को देखते ही उष्णता का पता चल जाता है।

२.मनन:
           अब अगर तीव्र प्रज्ञा नहीं है तो फिर मनन कुंजी है| मनन भी विचारों के समान ही एक स्तत क्रिया है। पर यह एक ही दिशा में गतिमान है ।
गुरु से प्राप्त ज्ञान को श्रवण करना है, फिर ज्ञान को अनुभव तक पकाने के लिए तर्क और विवेक की अग्नि पर चढ़ाना है।

३. निधिध्यासन:
             यह एक मास्टर चाबी है। इससे काम बनने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ पर हम गुरु से सुने ज्ञान पर मनन कर उपलब्ध हुए अनुभव को उपयोग करते हैं। यह, अंतिम विधि है। जब ज्ञान से उपजे अनुभव को आप प्रयोग करते | यही सतत समाधी में है। 

      सारी क्रिया ऐसे है, जैसे, पहली बार खाना बनाने की कोशिश: 
१. सुना/ देखा– कैसे-कैसे बनाते हैं और आ गया। 
२. कोशिश (मनन) –खुद तैयारी की और बनाने का प्रयास किया जब तक सही से नहीं बना।
३. आनंद - एक बार सिख लिया कैसे बनाते हैं फिर सदा के लिए सिख लिया | अब बनाना है और खाना है –आनंद है।

           एक बार पुन: अपने प्रश्न को देखते है विचारों का भार है, दुख है । सुख - आंनद कैसे मिले
उत्तर है– असत्य का नाश कर दें | 
कैसे ?
सत्य के प्रकाश से।
सनातन सत्य: जो परिवर्तन करता है वह असत्य है। इसका श्रवण हुआ, ज्ञान प्राप्त हुआ।

मनन: परिवर्तन करने वाली सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, भावनाओ को तर्क और विवेक से जांचना और परिवर्तनीय में छिपे अपरिवर्तनीय के बोध को जानना।

निधिध्यासन: सतत इस बोध का उपयोग करना। चेतना में जीना है। यही साक्षी बोध है। साक्षी की अवस्था में आपको विचारों का भार नहीं है। आप विचारों के दृष्टा हैं। यही परमानंद अवस्था है।

बालवत स्वभाव को कोन समझेगा ।
जो खुद खो गया उसको कोन खोजेगा।।
मोन से टकरा रहा है आनंद, पर जिसे 
कहा ना जा सके उसे कोन कैसे कहेगा?
मन मयूर की प्यास बुझा दे।
हे गुरु मोहे परमआनंद पिला दे।।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

आनंद में बाधा नहीं

          आत्मज्ञान तो सरलता से उपलब्ध है फिर भी हमारे बोध में नहीं आ पता है। इसका क्या कारण है? जो कारण दिखाई देता है– वह है शरीर और मन से आसक्ति। क्योंकि जो दिखाई देता है वह तो केवल भौतिक शरीर है। जिसके जागने से यह भौतिक शरीर मालूम पड़ता है, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यहां हम मन को सुक्ष्म शरीर से उपयोग कर रहे हैं। यह सुक्ष्म शरीर ही है जो भौतिक शरीर को अनुभव कर रहा है, महसूस कर रहा है।

          हम-अधिक स्थूल शरीर को ही महत्व देते हैं। सुक्ष्म को कम देते है पर सुक्ष्म शरीर का महत्व स्थूल से ज्यादा है। सुक्ष्म शरीर भी अंत में मिट जाता है– कारण शरीर ( अस्तित्व ) में मिल जाता है और फिर पुनः प्रकट होता है। जैसे– बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष | इसी प्रकार स्थूल व सुक्ष्म शरीर कारण में विलय, कारण से उत्पन्न होते हैं। सुक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि) अज्ञानता वश रोज कारण में विलीन होते हैं–गहरी नींद में। पुन: निकल आते हैं।

           यहां कार्य सुक्ष्म और स्थूल है और सुसुप्ति कारण है। जो कारण और कार्य कोई भी नहीं है वह चेतन(दृष्टा) है। दृष्टा न तो कार्य है न ही कारण है वह तो इन दोनों को देखने वाला है। इसका महत्व न के बराबर है, क्योंकि मनुष्य स्थूल शरीर का ही लाभ (उपयोग), आनंद ले रहे हैं, इसके न रहने पर दुख देख रहे हैं। ऐसा सभी के साथ है । कोई ज्ञानी अगर देह भाव से मुक्त भी हो तो भी उस पर आश्रित लोग तो दुख पाते हैं - क्योंकि वो तो उनसे लाभ ले रहे थे। अतः देह को ही सत्य माना गया है |

              जब यह पता चलता है कि इस स्थूल और सुक्ष्म के मिटने पर भी यह दृष्टा /चेतन्य सदा रहता ही है। पर इसके होने का आंनद नहीं ले पा रहे हैं। दृष्टा ही परमसत्य है, परमानंद है पर उसका लाभ न ले पाना, इसके महत्व को कम करता है। अब इस आनंद को कैसे पाना है इसको हम देख सकते हैं।
 इस पर क्रम से चल सकते हैं:
 १. स्थूल से सुक्ष्म में ज्यादा आनंदित रहें। 
                पदार्थ तो क्षणीक रूप से ही चाहिए, जैसे- रोटी कपडा और मकान– जिससे स्थूल शरीर चलता रहे । जब स्थूल इच्छाएँ पूर्ण हैं, तब आपके पास जो खाती समय है- क्या आप तब प्रसन्न हो ? 
जब एकांत में हो तो क्या प्रसन्न हो ?
अपने आप प्रसन्न हो ? 
                जब शरीर की ज़रूरत पूरी हो तो पीछे रह जाता 'मन', चित्त, सुक्ष्म शरीर | इसको सुख की भुख है, इसको प्रसन्ना चाहिए - यह सुख की तरफ जाता है। अब आपको यह चित्त खोज में भेजेगा । यहाँ से मार्गों की आवश्यकता का उदय होता है– संसार या आध्यात्म। 
 अगर मन सुख के लिए बाहर जाता है तो संसार का निर्माण करता है। और यही वृत्ति संसार को विस्तार देती है। संसार में कोई सुख पूर्ण नहीं है, यह तो हम सबका अनुभव है। इस पर अधिक क्या कहना।

२. सुक्ष्म से ज्यादा चेतना में आनंदित रहें। यहाँ भी मार्गों की व्यवस्था है:
        १. प्रेम (भक्तिमार्ग) गुरु से 
        २. बोध ( ज्ञानमार्ग) गुरु ज्ञान से
दोनों का अंतिम परिणाम आत्मज्ञान और आनंद है।
आत्मज्ञान और समर्पण से ज्ञानी और भक्त दोनों ही आत्म आनंद को पा सदा खुश रहते हैं।

सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रेम गली अति साँकरी जा में दो ना समाए - भक्तिमार्ग

      भक्तिमार्ग से अद्वैत की यात्रा सबसे छोटी है। भक्तिमार्ग सर्मपण का मार्ग है। यहाँ भक्त अपने आप को मिटाकर अपने से उच्च गुणों /अवस्था वाले गुरु, ईश्वररूप (मान्य) को पूर्ण  समर्पण करता है। यहाँ खुद को मिटाने का संबंध कुछ भी घटाने से नहीं है। जैसे आपको इस संसार में भी यदि क्षणिक रूप से किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस क्षण के लिए आपका कोई और अनुभव नही होता है । आपको केवल प्रेमी / प्रमिका ही सुनाई, दिखाई और महसूस होगा | उसके गुण-दोष सारे ही समाप्त हो जाते हैं । 

     ऐसी ही स्थिती एक भक्त कि है– वह खो जाता है और स्वयं भगवान हो जाता है। परंतु आज– कल ऐसा भक्त का मिलना चमत्कार ही होगा। इस पूरी पृथ्वी पर थायद ही ऐसा कोई मिले। इस काल में जहाँ मनुष्य शंकाओं, भ्रम और अंहकार की पाठशाला में ही जन्म पाता है। वहाँ समर्पण जैसे गुण का उदय चमत्कार ही होगा। इस मार्ग में भी अधिक भटकने और धीमे विकास की बाधाएं है। भक्त की समर्पणता से उसके सारे शुभ– दोष (चित्तवृत्ति) मिट जाएगे। फिर उसकी एकता होगी स्वयं से । 

   जब ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, तब वह विरला भक्त कह पाता है - प्रेम गती अति साँकरी जा में दो ना समाए।

      भक्तिमार्ग से ज्ञानमार्ग में थोड़ा प्रयास है, ज्ञानर्माग में हम बोध के लिए साधना करते, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने शुभों- दोषों (चित्त की परतों) को शांत करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रवण मनन निधिध्यासन को अपनाते हैं। आत्मबोध प्राप्त करते हैं । आत्मज्ञान होने पर किसी ज्ञानी को भी पता चलता है कि – संसार एक महास्वप्न है और केवल दृष्टा ही सदा है, निरंतर है। 

       इस ज्ञान के साथ अब ज्ञानी में शाश्वत प्रेम और समर्पणता आती है और अब अद्वैत अवस्था की प्राप्ती होती है। जहाँ इस काल में "प्रेम" सहज नहीं है, हमें पहले ज्ञानमार्ग से बोध की प्राप्ती के लिए जाना चाहिए। क्योंकि इन सभी मार्गो की अंतिम मंजील एक ही है– स्वयं की जागृति, परमानंद अवस्था।

ज्ञानमार्ग से आनंद की ओर

        मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ बैचेन है, दुखी है, संताप में है। और यहाँ - वहाँ सुख  की तलाश में भटक रहे हैं। आप भटक हैं- कभी वस्तुओं से सुख की आस में, कभी स्त्री या रिश्तों से सुख की आस में | यह वस्तुओं और मनुष्यों से सुख की प्यास बुझाने का प्रयास ही "संसार" के उदय का कारण है । यह संसार कहीं बाहर नही है - हम सबके अंदर ही है। जब आपके अनंत प्रयास के बाद भी आपको सुख की प्राप्ती नहीं होती और अगर सुख मिलता भी है तो कुछ देर बाद ही उससे दुख मिलने लगता है। जैसे आपको कोई भोजन बहुत प्रिय है, और आपको वही भोजन हर रोज, हर बार मिले तो आप उससे दो- तीन दिन में ऊब ही जाते हैं, उससे उपर जाने पर आपका प्रिय भोजन भी ज़हर समान हो जाता है। 
  
      इसके विपरीत भी आप सुख की खोज में भटक रहे हो सकते हैं, अगर संसार के दुख से दुखी हो आप दूसरी ओर भाग सकते हैं–अब आप सुख की कामना से वस्तुओं का त्याग करते हैं, स्त्री-रिश्तों का त्याग कर संसार से संन्यास की ओर भागते हैं, परंतु सुख मिलेगा नहीं क्योंकी मूल में तो वही कमाना है जो संसार को जन्म देती है। इन सभी क्रियाओं और कर्मों का फल शायद कुछ भी ना निकले।

      आनंद का उदय आपके अंदर ही होता है। वह ऐसा रस है जो कि किसी वस्तु-विषय पर निर्भर नहीं है। आनंद की तलाश आपको अंदर की ओर मोड़ती है तब जीवन में आध्यात्म का जन्म होता है। अपने स्वरूप के ज्ञान को ही आध्यात्म कहते हैं। इस ज्ञान /बोध से ही आनंद की प्यास बुझती है। इस परमानंद अवस्था तक पहुंचने के कई मार्ग हैं: भक्ति मार्ग, योगमार्ग (कर्म मार्ग ) और, ज्ञानमार्ग।

      हर मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग पर अपने से ज्यादा अनुभवी गुरु की जरूरत पड़ती है । अत: इसके लिए आपको अपनी यात्रा जीवित गुरु से शुरू करनी है। बिना जीवित गुरु के आपका प्रयास विफल हो जाएगा या छोटे बच्चे की बकवाद के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

      ज्ञानमार्ग बाकी मार्गों में सबसे छोटा और सरल है। परंतु इस मार्ग पर गति करने के लिए आपको मुमुक्षु होना चाहिए और थोड़ी समझ - बुद्धि होनी चाहिए।
     
      ज्ञानमार्ग पर हम अद्वैत को साधते हैं अपने - प्रत्यक्ष अनुभवो द्वारा; प्रत्यक्ष अनुभव (स्वयं का अनुभव) ही आधार है। इस मार्ग पर चलते हुए हम अपनी विवेक– बुद्धि को बढ़ाते हैं और तर्क से इस महास्वप्न के आधारों को काटते है और उसके मिथ्या होने की घोषणा करते हैं।  

      ज्ञान से हम जानते हैं कि जो परिवर्तन हो रहा है वह शाश्वत नहीं है। शाश्वत केवल एक ही है जिसको हम अनुभवकर्ता/ साक्षी या "मैं" कहते हैं। साक्षी /अनुभवकुर्ता वह है जो सबका अनुभव कर रहा है, या जो सब देख रहा है पर प्रभावित नहीं होता है। इस साक्षी अनुभवकर्ता का निरंतर बोध ही चेतना कहलाती है। इस साक्षी की उपस्थिती का आलंबन ही मोक्ष है, मुक्ती है । यह स्थिती ही आनंद की स्थिती है। यही पूर्णम शून्यम सत्यम का उद्घोष है।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...