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रविवार, 20 नवंबर 2022

सत्य ही ध्येय

 कितना मुर्ख था मैं जिसे समझा सच

वो दुनिया तो जीवन का धोखा है

डर, अंधेरे, रौशनी को तडपाती है

रौशनी मिलती नहीं 

गुरु की तड़प, गुरु मिला नहीं

सत्य की तड़प से गुरु मिला

गुरू तो गुड़ की तरह है

जीवन की कड़वाहट हर लेता है 

शहद से जीवन को प्रकट कर देता है।

 यहाँ हम मुफ्त में ठगे जा रहे हैं 

जो डरा नही सकते उनसे डरे जा रहे हैं।

 जब तक मिलता नहीं सुकुन तड़प जारी है 

= जब मिल जाए तो फिर बाँट की बारी है।


🙏

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

सत्य और विवेक

      विवेक का अर्थ होता है जब, जहाँ, जो सामने है- परिस्थिति, विकल्प उस पर तुरंत फैसला लेना। अध्यात्म में, विवेक का बहुत मुल्य है। यहाँ कोई नियमबद्ध चलने का सिद्धांत नहीं है। यहाँ कुछ भी नियमबद्ध नहीं है। नियम बनाकर मत चलना। यहाँ अगर नियमबद्ध चले तो फिर कहीं नहीं पहुंचोगे | नियम उनके लिए काम करते हैं जिनके पास विवेक नहीं होता या कहें जिनके पास कोई जीवित चेतना नहीं होती।

     जैसे मशीनें होती है– नियमबद्ध चलती हैं, विवेक की कोई जरूरत नहीं है। आपके  कंप्यूटर, मोबाइल चलते हैं नियम पर, विवेक का क्या काम है यहाँ ? 

विवेक जीवंत है। विवेक आपको बताता है कि मोबाइल पर क्या करें, देखें, क्या न करें ।

    अहंकार को बहुत भाता है– नियम से चलना। जब भी आप कोई भी काम करते हैं नियम से, तो अहम को इसके बल का पता चलता है। कल तक आपने खुद को शरीर, मन ही माना था; तो आपने अपने संसार के लिए कुछ नियम बना लिए थे- कि क्या करना, क्या नहीं करना, क्या पढ़ना - क्या नहीं पढ़ना, किस से लेना, किससे मिलना । और जब संसार से शांती नहीं मिलती तो अध्यात्म की ओर चलते हैं। अब भी आप वहीं है, फिर से नियम, बनाते हैं - मंत्र करना, माला करना, संत्संग करना, पैसे को छोड़ना, घर छोड़ना आदि-आदि। पर अभी तक कुछ भी बदला नहीं – अहंकार वही है, वहीं है, पहले पाने में राजी था, अब छोड़ने पर भी राजी है।

     केवल विवेक अहंकार के नाश में सहायक है। क्या होगा अहंकार का, जब कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं होगा, जब जो सामने होगा तब वैसे फैसला लेंगे। कभी पकड लेगें, कभी छोड़ देगें। अभी कोई निर्यण न लेगें, कोई नियम बनाकर नहीं रखेंगें कि आया कोई सवाल और किसी नियम से निकालकर रख दिया जवाब। अब तो जब सवाल आएगा, एक नया सवाल जैसा होगा और उसका नया जबाब होगा।



    विवेक से चलेगे, जब जरूरत हो तो पकड़ लेगें, जब जरूरत न हो तो छोड़ देंगे।

     जरूरतें तो शरीर की होती हैं। कभी भुलना नहीं चाहिए कि हम शरीर से भिन्न नहीं हो सकते हैं। तो शरीर की जरूरतों को विवेकपूर्ण रूप से पूरा करना भी जरूरी है। शरीर को बनाए रखने के लिए -रोटी, कपड़ा और आश्रय चाहिए – इसका इंतजाम करना चाहिए।

अगर शरीर को भूख लगी है तो क्या शांति का अनुभव कर सकते हैं? 

।। भूखे भजन न होई गोपाला ।।

     शरीर की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना ठीक है, कोई पाप नहीं। लेकिन ध्यान रखना की बात शरीर की हो रही है; मन की नहीं। मन की मूल ज़रूरत तो शांति है और शांति की तलाश में वो किसी चीज को पकड़ और छोड़ सकता है। मन अपनी जरूरत को अगर शरीर के साथ जोड़ देता है तो फिर आपकी, शरीर की जरूरतों को पूरी करने की दौड़ कभी समाप्त नहीं होगी। क्योंकि अब इनसे शांति पाने की कोशिश हो रही है, जो कि पूर्ण होगी नहीं।

     मन को जरूरत है 'सत्य' की | सत्य ही उसका आनंद है, अंत है। तो विवेक को साथ रखो। विवेक से समक्ष खड़ी स्थिति के अनुसार निर्णय करते चलो– अप्रत्याशित; कभी स्थिति के साथ, कभी स्थिति के खिलाफ और कभी बस मौन।

     विवेक सत्य का सारथी है।

     सत्य को स्वीकार करने के लिए विवेक की शरण जाना चाहिए।


गुरुवार, 20 जनवरी 2022

सब कारण झूठे हैं!!??

      साधक के जीवन की शुरुवात में पहले विवेक को पाओ, विवेक का विस्तार करो, विवेक से आप देख सकते हैं कि झूठ का होना भी अगर दिख गया तो भी सत्य ही परमाणित होगा। फिर विवेक को भी विदा कर दो।

      आपकी गति/अवस्था/स्थिती के पीछे कारण क्या है ? जानने की कोई जरूरत नहीं है, केवल आपके होने कि स्थिती को हम/आप जानते हैं - बस ऐसा ही है। किसी को किसी भी कारण से समझ नहीं आता या आया हो तो भी बात वहीं है कि समझा नहीं गया है। तुम क्यों चुके - वो तुम जानो।
                                          
                                       सब कारण झूठे हैं।

           कारण के चलते जो कर्म किए जाते हैं, उनसे कैसे भी अलग नहीं जो कारण चलते नहीं किए, दोनों स्थिती में कारण का बंधन है। कर्म को करने, न करने से कुछ भी नहीं बदलता, उसको करने वाला भी तो गड़बड़ हो सकता है? और करने वाला जो है उसको बदलना कोई नहीं चाहता।

          अध्यात्म है – पूर्ण, आधारहीन और निजी आश्वासन पर पहुंचना। कल्पनाओं में खोया मन अगर अध्यात्म से जुड़ता है तो और अधिक भ्रम में पड़ सकता है। "गुरु" तो आपकी स्थिती बता सकता है- बाकी तुम जानों।

          आपकी पहले की, पुरानी गति/स्थिती के न रहने की अवस्था है "ब्रह्म" । यहां हम हर दशा के लिए एक नए शब्द का उपयोग कर सकते हैं। जैसी आपकी बिमारी वैसा ही नाम उपचार का है:
राग =वितराग 
सिमीत =असीम 
मरण= अमर  

        यहां सब अकारण है। अकारण ही मूल है। अकारण की कृपा है। सब एक है, सब सत्य है। दृष्य - दृष्टा एक है | मनन करें।

                                      ।।।। समर्पण ।।।। 

     समर्पण या तो सहज ही होता है या फिर होता ही नहीं।

🙏
 टेलग्राम सेवा द्वारा जुड़ सकते हैं। सवाल पूछ सकते हैं।
https://t.me/gyananand
ज्ञान आनंद वार्ता


शनिवार, 11 सितंबर 2021

आनंद सूत्र

मनुष्य के दुःख मूल क्या है। 
             विचार –विचार सतत चलने वाली क्रिया है । 

यह आपके दुःख कारण कैसे है?
            विचार जब तक हैं, वो गतिमान ही रहेंगे – यही इसका गुण है। अब विचार कैसे भी प्रकट हो सकते हैं- अच्छे, बुरे, सच्चे –झूठे। अब अगर आपके विचार के अनुसार आपका कार्य नहीं होता तो दुःख या कार्य के अनुसार आपके विचारो का गठन नहीं होता तो दुःख। 

एक मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा क्या है - चाहे वो कोई भी हो ?
           इन विचारों से मुक्ति या इन विचारों पर जय।

क्या यह संभव है ?
            संभव है । 

सूत्र क्या है ?  सत्य का सँग !!
           दुखी व्यक्ति का सत्संग तक पहुंचना भी कठिन जान पड़ता है। क्योंकि माया का परदा पड़ा है –आसा का। एक आस बांध रहती है कि जहां आज दुःख है वहा कल सूख होगा। यह मृगजल जैसा है दिखाई देता है ; कि पानी है, परंतु जब वहां जाओगे तो वहां नहीं है, किसी और जगह है। ऐसी ही स्थिती मानव जाति की है।
ऐसे मृगजल की भ्रांति से ग्रस्त व्यक्ति को केवल यह बोध कि यह मृगजल है सत्य नहीं– बचा सकता है। 

यह बोध कैसे हो ?, 
          बोध प्राप्त व्यक्ति ही ऐसा बता सकते हैं, उनको हम गुरु कहते हैं। गुरु आपको बोध कराते है - सत्य का और आगे बढ़ जाते हैं। 

बोध की विधि क्या है ? 
 १. श्रवण : सुनना /देखना
              जिसकी बुद्धि प्रखर है, प्रज्ञा तेज है, उनको केवल सुनना/ देखना ही प्रयाप्त है। ठीक से सुनने/देखने पर ही बोध हो जाएगा। जैसे मछुआरों को लहर देख कर ही तूफान आएगा या नहीं पता चल जाता है। जैसे अग्नि को देखते ही उष्णता का पता चल जाता है।

२.मनन:
           अब अगर तीव्र प्रज्ञा नहीं है तो फिर मनन कुंजी है| मनन भी विचारों के समान ही एक स्तत क्रिया है। पर यह एक ही दिशा में गतिमान है ।
गुरु से प्राप्त ज्ञान को श्रवण करना है, फिर ज्ञान को अनुभव तक पकाने के लिए तर्क और विवेक की अग्नि पर चढ़ाना है।

३. निधिध्यासन:
             यह एक मास्टर चाबी है। इससे काम बनने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ पर हम गुरु से सुने ज्ञान पर मनन कर उपलब्ध हुए अनुभव को उपयोग करते हैं। यह, अंतिम विधि है। जब ज्ञान से उपजे अनुभव को आप प्रयोग करते | यही सतत समाधी में है। 

      सारी क्रिया ऐसे है, जैसे, पहली बार खाना बनाने की कोशिश: 
१. सुना/ देखा– कैसे-कैसे बनाते हैं और आ गया। 
२. कोशिश (मनन) –खुद तैयारी की और बनाने का प्रयास किया जब तक सही से नहीं बना।
३. आनंद - एक बार सिख लिया कैसे बनाते हैं फिर सदा के लिए सिख लिया | अब बनाना है और खाना है –आनंद है।

           एक बार पुन: अपने प्रश्न को देखते है विचारों का भार है, दुख है । सुख - आंनद कैसे मिले
उत्तर है– असत्य का नाश कर दें | 
कैसे ?
सत्य के प्रकाश से।
सनातन सत्य: जो परिवर्तन करता है वह असत्य है। इसका श्रवण हुआ, ज्ञान प्राप्त हुआ।

मनन: परिवर्तन करने वाली सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, भावनाओ को तर्क और विवेक से जांचना और परिवर्तनीय में छिपे अपरिवर्तनीय के बोध को जानना।

निधिध्यासन: सतत इस बोध का उपयोग करना। चेतना में जीना है। यही साक्षी बोध है। साक्षी की अवस्था में आपको विचारों का भार नहीं है। आप विचारों के दृष्टा हैं। यही परमानंद अवस्था है।

बालवत स्वभाव को कोन समझेगा ।
जो खुद खो गया उसको कोन खोजेगा।।
मोन से टकरा रहा है आनंद, पर जिसे 
कहा ना जा सके उसे कोन कैसे कहेगा?
मन मयूर की प्यास बुझा दे।
हे गुरु मोहे परमआनंद पिला दे।।

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

आपका अनुभव ही आपका सत्य है

          किसी व्यक्ति का जो अनुभव है वह उस व्यक्ति के लिए– क्या सत्य है, क्या असत्य है, निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है। यहां अस्तित्व (जगत) में जो भी हो रहा है, जितना उसकी बुद्धि में आया, वह उसका अनुभव है और यही अनुभव उसके लिए सदा सत्य होता है।
यहां अनुभव के तीन प्रकार हैं:
१. जगत का अनुभव– जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा होता है।
२. शरीर का अनुभव– जिसका अनुभव आधा इंद्रियों द्वारा और आधा मानसिक रूप से होता है।
३. चित्त यह एक निजी व्यक्तिगत (मानसिक) अनुभव है जैसे कि विचार, भावना, कल्पना और यह चित्त में ही अनुभव होता है। 
      
          जगत, शरीर और मन जब एक रुप में बताने हों तो उन्हें चित्त कह सकते हैं। चित्त एक स्तरीय रचना है। यह सभी नाद रचनाए हैं और सभी अनुभव चित्त के अनुभव हैै। अनुभव अस्तित्व से उत्पन्न होता है और अस्तित्व में ही लोप होता है। यह बुद्धि के अंदर है अतः इसको जाना जा सकता है।  

          जब सभी को अनुभव हों रहें हैं , सभी ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं, तो फिर यहां दुख और संताप क्यों है? क्योंकि हम किसी अनुभव को सदा के लिए एक जैसा रखना चाहते हैं। और किसी भी अनुभव से आसक्ति होने पर बंधन का जन्म होता है। अब ये बंधन ही आपको कर्म, कर्म फल, सुख और दुख से गर्सित करते हैं। यह चित्त का दोष है, इस दोष के कारण अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त ज्ञान अपनाया नहीं गाया है। यही हमारा अज्ञान है।

           अनुभवकर्ता (आत्मा) के सिवा अन्य किसी भी अनुभव से आसक्ति बंधन है, गुरु आप को बंधन में से मुक्त रूप दिखा सकता है। इस बोध से आप मुक्त हो ऐसा जान सकते हैं। 
    
            अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त यह सत्य व्यवस्थित तरीके से संयोजित होने पर संस्कार रूप में चित्त में ज्ञान बन कर प्रकट होता है। स्वयं का अनुभव ही ज्ञान है। आत्मनुभ्व ही पूर्ण–ज्ञान है।

            आप सदैव से मुक्त हैं, बस आपने बंधन को अपना मान लिया है, इसके बोध (छूटने) पर यह सत्य सवतः ही प्रकट हो जाएगा। सत्यम शिवम् सुंदरम का उदघोष सत्यापित हो जाएगा।


नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...