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रविवार, 20 फ़रवरी 2022

सत्य और विवेक

      विवेक का अर्थ होता है जब, जहाँ, जो सामने है- परिस्थिति, विकल्प उस पर तुरंत फैसला लेना। अध्यात्म में, विवेक का बहुत मुल्य है। यहाँ कोई नियमबद्ध चलने का सिद्धांत नहीं है। यहाँ कुछ भी नियमबद्ध नहीं है। नियम बनाकर मत चलना। यहाँ अगर नियमबद्ध चले तो फिर कहीं नहीं पहुंचोगे | नियम उनके लिए काम करते हैं जिनके पास विवेक नहीं होता या कहें जिनके पास कोई जीवित चेतना नहीं होती।

     जैसे मशीनें होती है– नियमबद्ध चलती हैं, विवेक की कोई जरूरत नहीं है। आपके  कंप्यूटर, मोबाइल चलते हैं नियम पर, विवेक का क्या काम है यहाँ ? 

विवेक जीवंत है। विवेक आपको बताता है कि मोबाइल पर क्या करें, देखें, क्या न करें ।

    अहंकार को बहुत भाता है– नियम से चलना। जब भी आप कोई भी काम करते हैं नियम से, तो अहम को इसके बल का पता चलता है। कल तक आपने खुद को शरीर, मन ही माना था; तो आपने अपने संसार के लिए कुछ नियम बना लिए थे- कि क्या करना, क्या नहीं करना, क्या पढ़ना - क्या नहीं पढ़ना, किस से लेना, किससे मिलना । और जब संसार से शांती नहीं मिलती तो अध्यात्म की ओर चलते हैं। अब भी आप वहीं है, फिर से नियम, बनाते हैं - मंत्र करना, माला करना, संत्संग करना, पैसे को छोड़ना, घर छोड़ना आदि-आदि। पर अभी तक कुछ भी बदला नहीं – अहंकार वही है, वहीं है, पहले पाने में राजी था, अब छोड़ने पर भी राजी है।

     केवल विवेक अहंकार के नाश में सहायक है। क्या होगा अहंकार का, जब कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं होगा, जब जो सामने होगा तब वैसे फैसला लेंगे। कभी पकड लेगें, कभी छोड़ देगें। अभी कोई निर्यण न लेगें, कोई नियम बनाकर नहीं रखेंगें कि आया कोई सवाल और किसी नियम से निकालकर रख दिया जवाब। अब तो जब सवाल आएगा, एक नया सवाल जैसा होगा और उसका नया जबाब होगा।



    विवेक से चलेगे, जब जरूरत हो तो पकड़ लेगें, जब जरूरत न हो तो छोड़ देंगे।

     जरूरतें तो शरीर की होती हैं। कभी भुलना नहीं चाहिए कि हम शरीर से भिन्न नहीं हो सकते हैं। तो शरीर की जरूरतों को विवेकपूर्ण रूप से पूरा करना भी जरूरी है। शरीर को बनाए रखने के लिए -रोटी, कपड़ा और आश्रय चाहिए – इसका इंतजाम करना चाहिए।

अगर शरीर को भूख लगी है तो क्या शांति का अनुभव कर सकते हैं? 

।। भूखे भजन न होई गोपाला ।।

     शरीर की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना ठीक है, कोई पाप नहीं। लेकिन ध्यान रखना की बात शरीर की हो रही है; मन की नहीं। मन की मूल ज़रूरत तो शांति है और शांति की तलाश में वो किसी चीज को पकड़ और छोड़ सकता है। मन अपनी जरूरत को अगर शरीर के साथ जोड़ देता है तो फिर आपकी, शरीर की जरूरतों को पूरी करने की दौड़ कभी समाप्त नहीं होगी। क्योंकि अब इनसे शांति पाने की कोशिश हो रही है, जो कि पूर्ण होगी नहीं।

     मन को जरूरत है 'सत्य' की | सत्य ही उसका आनंद है, अंत है। तो विवेक को साथ रखो। विवेक से समक्ष खड़ी स्थिति के अनुसार निर्णय करते चलो– अप्रत्याशित; कभी स्थिति के साथ, कभी स्थिति के खिलाफ और कभी बस मौन।

     विवेक सत्य का सारथी है।

     सत्य को स्वीकार करने के लिए विवेक की शरण जाना चाहिए।


रविवार, 13 फ़रवरी 2022

साधक से साक्षी की ओर

     साधक को ही क्षेत्रज्ञ कहा है। क्षेत्रज्ञ वो है जो क्षेत्र का ज्ञाता है।

     आध्यात्म में कौन से क्षेत्र की बात हो रही है? यह जो क्षेत्र है हमारे "अनुभव" का ही क्षेत्र है। जो भी अनुभव किया जा रहा है, जो भी इंद्रियो की पकड़ में है वो इस क्षेत्र में आता है।

      जो कुछ भी देख, सुन, स्पर्श (रंग, रूप, रस, गंध, शब्द )  आदि द्वारा अंदर प्रवेश कर सकता है, फिर वह अतःकरण से कुछ क्रिया कर अनुभव को प्रकट करता है। बात ये भी है कि अगर अंत:करण (मन) कोई क्रिया न करे तो फिर कोई अनुभव भी नहीं होगा।

     अब जो कुछ है जिसका मन से संग हो सकता है वो सब अनुभव क्षेत्र में आता है। जैसे- वस्तुएँ, भावनाएं, विचार (जिसका भी हो) सुख, दुख आदि-आदि।

अब इस ज्ञान को पाने की दो लोग कोशिश करते हैं: 

     एक जो इस ज्ञान से लाभ पाना चाहता है - अनुभव के तल पर ही, यानि एक संसारी जिसकी भोगने में ही रूचि है। वो इस ज्ञात के माध्यम नए-नए रास्ते खोजेगा अनुभवों को भोगने के। 

      दूसरा वो जो इस ज्ञान से लाभ पाना चाहता है, इससे मुक्त होने के लिए । तो जो इस क्षेत्र को जानता है, मुक्ति के लिए उसको बोल सकते हैं- क्षेत्रज्ञ। यह जो स्थिती है– एक साधक की स्थिती है। साधक को मुक्ति चाहिए | साधक को अनुभवों से विरक्ति हो गई है, अधिकांश बार/समय अनुभवों से प्राप्त दुख के कारण और वह मुक्ति कि तलाश में है। 

     जब साधक बिलकुल ही विरक्त हो जाता है–अनुभवो के प्रति, तब वह साक्षी है। 



     साधक को बहुत जरूरत है, अपने अनुभवों के प्रति सजग होने की। साधक को अपने अनुभवों (संसार) को बिलकुल साफ-साफ देखना होगा, तभी वह उनसे अपनी मुक्ति की ओर जा सकता है। जब साधक भली भांति से संसार को जान लेता है, तभी वह उसके सभी प्रपंचों से बच सकता है।

     अंत में जब अनुभवों से मुक्ति की चाह भी गिर जाती है, तो, "मुक्ति" है। मुक्त स्थिती है। 

🌼अनुभवों के प्रति अनासक्ति – साक्षी है। 🌼


रविवार, 6 फ़रवरी 2022

अवस्थाओं के पार, स्वयं का सार

      जाग्रति, निद्रा और सुषुप्ति का ज्ञान हमको होता है, प्रतिदिन। इनका ज्ञान होने के लिए हमारे पास हैं दस इंद्रियां और अंतःकरण। कुल १४ गुण हैं।

दस इंद्रियां मे पहले हैं –पांच कर्मेंद्रियां 

दूसरा– पांच ज्ञानेंद्रियां 

उसके बाद है अंतःकरण यह आंतरिक इंद्रियां कहलाती हैं। यह ४ प्रकार से हैं: मन, बुद्धि, चित, अहंकार।

इसके आधार पर चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रति, निद्रा, सुषुप्ति को समझ सकते हैं।

     जाग्रत अवस्था - वो अवस्था है चेतना की जिसमें सभी १४ इंद्रियां सक्रिय हैं। 

यहां जब कुछ आया हमारी इंद्रियों की पकड़ में - रंग, रूप, रस, गंध, शब्द और ये इन्द्रियों के द्वार भीतर प्रवेश करते हैं, फिर भीतर आयी जानकारी पर अंतःकरण क्रिया द्वारा एक रचना का निर्माण कर दिया जाता है। अब जो रचना हुई है उसको हम अनुभव कहते हैं। इन अनुभवों से, या इसके आधार पर हम कर्म करते हैं।

     अब हमारा अहम (अहंकार) अगर अनुभवों से या उसके फलों में बहुत आशक्त है तो फिर ये जो अहम है, इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करता कि बाहर से कुछ सामग्री आए, फिर मैं उससे क्रिया करके अनुभव बनाऊ। वह पहले से मिले अनुभवों और अनुभवों पर आधारित स्मृति से कल्पना का उपयोग करके कुछ - न –कुछ अनुभव तैयार कर लेता है - इस अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं।

     जागृत अवस्था में तो अनुभवों का निर्माण करने में इन्द्रियों का सक्रिय होना जरूरी है। 

       जैसे पैसों से संबंधित अनुभव के लिए आपको पैसो का देखना, छुना या पैसों के बारे में बातचित होना जरूरी है। 

       परंतु स्वप्न में इन्द्रियों का जागृत होना जरूरी नहीं है। यहाँ अहम् धन संबंधित कल्पना करके, अपने धन संबंधित अनुभवों को भोग लेता है। ये अहम् की कोशिश है अनुभवों को भोगने की जिसको वो जाग्रत में न कर (भोग) पा रहा है।


      अब तिसरी है- सुषुप्ति - इस अवस्था में अहम् - अपने होने मात्र से ही संतुष्ठ हो जाता है। यह अवस्था बहुत आनंद देती है, पर यह पूर्णतया स्थिर नहीं है –अनित्य है। यह समाधी के जैसी है, पर अपूर्ण है, अज्ञान ही है।

     इसके आगे है तुरीय, यह कोई अवस्था नहीं है, यह तीनों अवस्थाओं के प्रति अरुचि है। यह है - अनुभवों और उसके फलों के प्रति अरुचि, अनाशक्ति। इसको ही साक्षी, चेतना कहते हैं।

     अब आपको साक्षी होने के लिए कोई - कर्म, ध्यान, साधना करने की जरूरत है? —नहीं!!! केवल अनुभवो और अनुभव के फलों के प्रति आशक्त नहीं होना है।


मन आदिचतुर्दशकरणैः पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान्-स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणम्।

तद्वासनासहितैश्चतुर्दशकरणैः शब्दाद्यभावेऽपि वासनामयाञ्छब्दादीन्यदोपलभते तदात्मनः स्वप्नम्।

चतुर्दशकरणो परमाद्विशेषविज्ञानाभावाद्यदा

शब्दादीन्नोपलभते तदात्मनः सुषुप्तम्।

अवस्थात्रयभावाभावसाक्षी स्वयंभावरहितं

नैरन्तर्यं चैतन्यं यदा तदा तुरीयं चैतन्यमित्युच्यते। ॥४॥


"देवों की शक्ति द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और दस इन्द्रियाँ- इन चौदह करणों द्वारा आत्मा जिस अवस्था में शब्द, स्पर्श, रूप आदि स्थूल, विषयों को ग्रहण करती है, उसको आत्मा की जाग्रतावस्था कहते हैं। शब्द आदि स्थूल विषयों के न होने पर भी जाग्रत स्थिति के समय बची रह गई वासना के कारण मन आदि चतुर्दश करणों के द्वारा शब्दादि विषयों को जब जीव ग्रहण करता है, उस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं। इन इन्द्रियों के शांत हो जाने पर जब विशेष ज्ञान नहीं रहता और इन्द्रियाँ शब्द आदि विषयों को ग्रहण नहीं करतीं, तब आत्मा की उस अवस्था को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं की उत्पत्ति और लय का ज्ञाता और स्वयं उद्भव और विनाश से सदैव परे रहने वाला जो नित्य साक्षी भाव में स्थित चैतन्य है, उसी को तुरीय चैतन्य कहते हैं, उसकी इस अवस्था का नाम ही तुरीयावस्था है।"

 सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ४

रविवार, 16 जनवरी 2022

आत्मसाक्षात्कार किसका ?

         आत्मसाक्षात्कार का अर्थ ये नहीं की आत्मा (अनुभवकर्ता) का साक्षात्कार होता है । बल्की यहाँ अर्थ उल्टा है कि है: मन और शरीर का साक्षात्कार होता है। अर्थ है–माया का साक्षात्कार करना।
यहाँ कभी –कोई आत्मा (अनुभवकर्ता) का दर्शन नहीं होता। कोई रोशनी नहीं, कोई हीरा नहीं, कोई दिव्य ज्योति नहीं।

        खुद को देखने का अर्थ है- अपनी वृत्तियों को देखना, अपने आंतरिक छल-कपट को देखना, बुराइयों को देखना | 
        कौन है, जो देखना चाहता है, अपनी वृत्तियों को? 
        कौन है जो अंदर के दानव को देखना चाहता है ? अपनी वृत्तियों को देखना ही आत्मसाक्षात्कार है। 
बहुत संभावना है कि इसमें आपको कोई बहुत बढ़िया या चमत्कारी बात नहीं मिले।

        अपनी वृत्तियों को देखना कष्टप्रद हो सकता है | पर देखने पर ही उनसे उपर उठने की संभावना पाई जा सकती है। जिसे ठीक- ठीक दिख रहा है कि वो कितना बंधन में है, कौन सा विचार आ रहा, कहां से आ रहा है, कौन उस कर्म का मालिक है- वो मुक्त है; क्योंकि जिसने देख लिया वो उस विचार से, कर्म से बच सकता है–यही मुक्ति है। यही चेतना है।

       आत्मा का कोई रूप, रंग, आकार और समय में कोई आस्तित्व नहीं है। आत्मा में/ से सब है, पर सब मे आत्मा नहीं।

        जिस क्षण में माया को माया देख लिया, ठीक उस क्षण में ये देखने वाला कौन है ? ये देखने वाला उस क्षण में स्वयं सत्य है।  झूठ –झूठ को, अंधेरा - अंधेरे को नहीं पकड़ सकता । किसी चीज को पकड़ने के लिए कुछ ऐसा चाहिए जो बिल्कुल उससे भिन्न हो। जिस आदमी ने अपने अंदर के किचड़, कबाड़, शोक, दुख को देख लिया वो उससे भिन्न हो गया। मुक्त हो गया।

        आत्मसाक्षात्कारी देखता तो है माया को, और एक होता जाता है –आत्मा से। 
क्योंकि जब आत्मा होती है आखों के पीछे तो तुम माया को पकड़ लेते हो। अगर उल्टा हुआ और आखों के सामने आत्मा, परमात्मा, प्रकाश दिखे तो फिर माया पीछे है। ये माया का खेल है।
ज्ञान आनंद
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गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

आत्म ज्ञान से कर्म निवृत्ति


           व्यक्ति को प्रकृति से उपहार स्वरूप अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इन गुणों को उपयोग कर कर्म करना होता है। कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। ना चाहने पर भी अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
यह अनुभवकर्ता का स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है। सदैव अनुभव को देखने में लगा है। अतः आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए खुद(मन) को अच्छे अनुभवों (सत्कर्म) में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा। माया के संसर्ग में आकर भौतिक जगत से जुड़ाव प्राप्त कर लेता है और इससे उत्पन्न सूख दुःख को भोगने वाला बन जाता है। किन्तु यदि आत्म स्वरूप, आनंद से उत्पन्न अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

           "यदि कोई आत्म ज्ञानी शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी। किन्तु यदि कोई शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और आत्म ज्ञान न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?" संन्यास या कोई भी पद्धति आत्म ज्ञान के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है।

            मान लो कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं, जो चेतना में कार्य तो नहीं करते, किन्तु ध्यान का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे मन में इन्द्रियभोग का चिन्तन करते रहते हैं।

              आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है, वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है, जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।

             अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

💮 चेतना मुक्ति द्वार 💮

               कोई जीव माता के गर्भ से जन्म लेता है। फिर बालक रूप में रहता है, फिर युवान और फिर धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त में समाप्त जाता है । इस काल– क्रम से हम सभी परिचित हैं। यह जानकर भी मनुष्य अपने सीमित समय का उपयोग अपने उत्थान के लिए नहीं करता – यह महा आश्चर्य है !!
 
               मनुष्य अपने शरीर को ही सत्य मानकर, मान- अपमान, दुख-सुख, जन्म - मृत्यु के भय से आक्रत रहता है। शरीर तो परिवर्तनशील है ऐसा हमने पहले जाना है, परंतु उसके अनुभव की शक्ति तो शरीर की स्थितियों के साथ नहीं बदलती, वह तो एक सी ही रहती है। अतः यह भी स्पष्ट है कि वह शरीर से अलग कुछ अपरिर्वतनशील शक्ति भी है। इस अपरिर्वतनशील शक्ति को हम अपना मूल तत्व कहते हैं - अनुभवकर्ता /आत्मा कहते हैं।

               यह अनुभवकर्ता शरीर के, मन के सभी प्रकार के परिवर्तनों से मुक्त है। सभी प्रकार से जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त है। इसकी उपस्थिति को जानने वाला सदा मुक्त और शांत है। 

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 

(श्लोक २० गीता)

            मैं/ अनुभवकर्ता/ आत्मा – के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |

              अनुभवकर्ता/आत्मा का यह ज्ञान चेतना से उपलब्ध होता है। चेतना ही आत्मा / अनुभवकर्ता का लक्षण है। चेतना को जगाना ही एक ज्ञानमार्गी का लक्ष्य है। यदि कोई आत्मतत्व को न खोज पाता है तब भी वह आत्मा/ अनुभवकर्ता की उपस्थिति को चेतना की उपस्थिति से जान सकता है। जैसे कभी कभी बादल आकाश में सूर्य को छुपा देते हैं, परन्तु सूर्य तो सदा आकाश में रहता ही है। बादलों के हट जाने पर यह प्रमाणित हो जाता है।

             ज्ञानमार्ग में हम यह ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और चेतना के विकास को प्राथमिकता देते हैं। जब चेतना सक्रिय होती है तो अनुभवकर्ता की उपस्थिति जान लेते हैं। यहां समस्या यही है की मनुष्य की चेतना विस्मरणशील है, इस कारण जब वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। तो उसके कल्याण के लिए गुरु ज्ञान प्रकट होता है, "गुरु" के उपदेशो से आत्म–कल्याण की शिक्षा और बोध प्राप्त होता है। 


शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

आनंद में रहने की सरल विधि

        खेल– आनंद में रहने की सबसे सरल विधि है। आप बच्चो को देख सकते हैं, जब वो खेल में मगन होते हैं तो कैसे आनंद में रहते हैं!! खेल में मगन बच्चो को न भूख है, न ही गर्मी सर्दी। न कोई मान सम्मान न ही कोई मित्र न ही शत्रु। और आपने सुना भी होगा कि "संसार खेल मात्र है परमात्मा का"।

       अगर आपका जीवन में से ये खेल का सूत्र गायब है तो फिर आपका जीवन आपको बहुत बोझिल लगेगा, थकाने वाला लगेगा। संसार का सार केवल यहीं है कि ये सब बस माया का खेल है। अगर आप खेल को खेल ही जान कर खेल रहे हैं तो आप सदा खुश रहते हैं।

       मनुष्य की सबसे बड़ी परेशानी यही हुई है कि वो खेल को खेल नहीं बल्कि चुनौती समझ गया है, खेल में जीत और हार को मूल्य दे रहें हैं और दुख ले रहें हैं।

        गुरु की जरुरत केवल यही समझाने के लिए है कि आप थोड़ा रुक कर देख लो कि ये बस खेल है, कोई और इसका मकसद नहीं है। खेल का आनंद लो। 

छोड़ो क्या करना है आत्मा का, परमात्मा का।

पहले खुद को ठीक से जान लो। खेल को पहचान लो। और आनंद में आगे बढ़ जाओ।

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

आपका अनुभव ही आपका सत्य है

          किसी व्यक्ति का जो अनुभव है वह उस व्यक्ति के लिए– क्या सत्य है, क्या असत्य है, निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है। यहां अस्तित्व (जगत) में जो भी हो रहा है, जितना उसकी बुद्धि में आया, वह उसका अनुभव है और यही अनुभव उसके लिए सदा सत्य होता है।
यहां अनुभव के तीन प्रकार हैं:
१. जगत का अनुभव– जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा होता है।
२. शरीर का अनुभव– जिसका अनुभव आधा इंद्रियों द्वारा और आधा मानसिक रूप से होता है।
३. चित्त यह एक निजी व्यक्तिगत (मानसिक) अनुभव है जैसे कि विचार, भावना, कल्पना और यह चित्त में ही अनुभव होता है। 
      
          जगत, शरीर और मन जब एक रुप में बताने हों तो उन्हें चित्त कह सकते हैं। चित्त एक स्तरीय रचना है। यह सभी नाद रचनाए हैं और सभी अनुभव चित्त के अनुभव हैै। अनुभव अस्तित्व से उत्पन्न होता है और अस्तित्व में ही लोप होता है। यह बुद्धि के अंदर है अतः इसको जाना जा सकता है।  

          जब सभी को अनुभव हों रहें हैं , सभी ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं, तो फिर यहां दुख और संताप क्यों है? क्योंकि हम किसी अनुभव को सदा के लिए एक जैसा रखना चाहते हैं। और किसी भी अनुभव से आसक्ति होने पर बंधन का जन्म होता है। अब ये बंधन ही आपको कर्म, कर्म फल, सुख और दुख से गर्सित करते हैं। यह चित्त का दोष है, इस दोष के कारण अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त ज्ञान अपनाया नहीं गाया है। यही हमारा अज्ञान है।

           अनुभवकर्ता (आत्मा) के सिवा अन्य किसी भी अनुभव से आसक्ति बंधन है, गुरु आप को बंधन में से मुक्त रूप दिखा सकता है। इस बोध से आप मुक्त हो ऐसा जान सकते हैं। 
    
            अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त यह सत्य व्यवस्थित तरीके से संयोजित होने पर संस्कार रूप में चित्त में ज्ञान बन कर प्रकट होता है। स्वयं का अनुभव ही ज्ञान है। आत्मनुभ्व ही पूर्ण–ज्ञान है।

            आप सदैव से मुक्त हैं, बस आपने बंधन को अपना मान लिया है, इसके बोध (छूटने) पर यह सत्य सवतः ही प्रकट हो जाएगा। सत्यम शिवम् सुंदरम का उदघोष सत्यापित हो जाएगा।


नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...