किसी व्यक्ति का जो अनुभव है वह उस व्यक्ति के लिए– क्या सत्य है, क्या असत्य है, निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है। यहां अस्तित्व (जगत) में जो भी हो रहा है, जितना उसकी बुद्धि में आया, वह उसका अनुभव है और यही अनुभव उसके लिए सदा सत्य होता है।
यहां अनुभव के तीन प्रकार हैं:
१. जगत का अनुभव– जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा होता है।
२. शरीर का अनुभव– जिसका अनुभव आधा इंद्रियों द्वारा और आधा मानसिक रूप से होता है।
३. चित्त यह एक निजी व्यक्तिगत (मानसिक) अनुभव है जैसे कि विचार, भावना, कल्पना और यह चित्त में ही अनुभव होता है।
जगत, शरीर और मन जब एक रुप में बताने हों तो उन्हें चित्त कह सकते हैं। चित्त एक स्तरीय रचना है। यह सभी नाद रचनाए हैं और सभी अनुभव चित्त के अनुभव हैै। अनुभव अस्तित्व से उत्पन्न होता है और अस्तित्व में ही लोप होता है। यह बुद्धि के अंदर है अतः इसको जाना जा सकता है।
जब सभी को अनुभव हों रहें हैं , सभी ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं, तो फिर यहां दुख और संताप क्यों है? क्योंकि हम किसी अनुभव को सदा के लिए एक जैसा रखना चाहते हैं। और किसी भी अनुभव से आसक्ति होने पर बंधन का जन्म होता है। अब ये बंधन ही आपको कर्म, कर्म फल, सुख और दुख से गर्सित करते हैं। यह चित्त का दोष है, इस दोष के कारण अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त ज्ञान अपनाया नहीं गाया है। यही हमारा अज्ञान है।
अनुभवकर्ता (आत्मा) के सिवा अन्य किसी भी अनुभव से आसक्ति बंधन है, गुरु आप को बंधन में से मुक्त रूप दिखा सकता है। इस बोध से आप मुक्त हो ऐसा जान सकते हैं।
अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त यह सत्य व्यवस्थित तरीके से संयोजित होने पर संस्कार रूप में चित्त में ज्ञान बन कर प्रकट होता है। स्वयं का अनुभव ही ज्ञान है। आत्मनुभ्व ही पूर्ण–ज्ञान है।
आप सदैव से मुक्त हैं, बस आपने बंधन को अपना मान लिया है, इसके बोध (छूटने) पर यह सत्य सवतः ही प्रकट हो जाएगा। सत्यम शिवम् सुंदरम का उदघोष सत्यापित हो जाएगा।
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