विवेक का अर्थ होता है जब, जहाँ, जो सामने है- परिस्थिति, विकल्प उस पर तुरंत फैसला लेना। अध्यात्म में, विवेक का बहुत मुल्य है। यहाँ कोई नियमबद्ध चलने का सिद्धांत नहीं है। यहाँ कुछ भी नियमबद्ध नहीं है। नियम बनाकर मत चलना। यहाँ अगर नियमबद्ध चले तो फिर कहीं नहीं पहुंचोगे | नियम उनके लिए काम करते हैं जिनके पास विवेक नहीं होता या कहें जिनके पास कोई जीवित चेतना नहीं होती।
जैसे मशीनें होती है– नियमबद्ध चलती हैं, विवेक की कोई जरूरत नहीं है। आपके कंप्यूटर, मोबाइल चलते हैं नियम पर, विवेक का क्या काम है यहाँ ?
विवेक जीवंत है। विवेक आपको बताता है कि मोबाइल पर क्या करें, देखें, क्या न करें ।
अहंकार को बहुत भाता है– नियम से चलना। जब भी आप कोई भी काम करते हैं नियम से, तो अहम को इसके बल का पता चलता है। कल तक आपने खुद को शरीर, मन ही माना था; तो आपने अपने संसार के लिए कुछ नियम बना लिए थे- कि क्या करना, क्या नहीं करना, क्या पढ़ना - क्या नहीं पढ़ना, किस से लेना, किससे मिलना । और जब संसार से शांती नहीं मिलती तो अध्यात्म की ओर चलते हैं। अब भी आप वहीं है, फिर से नियम, बनाते हैं - मंत्र करना, माला करना, संत्संग करना, पैसे को छोड़ना, घर छोड़ना आदि-आदि। पर अभी तक कुछ भी बदला नहीं – अहंकार वही है, वहीं है, पहले पाने में राजी था, अब छोड़ने पर भी राजी है।
केवल विवेक अहंकार के नाश में सहायक है। क्या होगा अहंकार का, जब कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं होगा, जब जो सामने होगा तब वैसे फैसला लेंगे। कभी पकड लेगें, कभी छोड़ देगें। अभी कोई निर्यण न लेगें, कोई नियम बनाकर नहीं रखेंगें कि आया कोई सवाल और किसी नियम से निकालकर रख दिया जवाब। अब तो जब सवाल आएगा, एक नया सवाल जैसा होगा और उसका नया जबाब होगा।
विवेक से चलेगे, जब जरूरत हो तो पकड़ लेगें, जब जरूरत न हो तो छोड़ देंगे।
जरूरतें तो शरीर की होती हैं। कभी भुलना नहीं चाहिए कि हम शरीर से भिन्न नहीं हो सकते हैं। तो शरीर की जरूरतों को विवेकपूर्ण रूप से पूरा करना भी जरूरी है। शरीर को बनाए रखने के लिए -रोटी, कपड़ा और आश्रय चाहिए – इसका इंतजाम करना चाहिए।
अगर शरीर को भूख लगी है तो क्या शांति का अनुभव कर सकते हैं?
।। भूखे भजन न होई गोपाला ।।
शरीर की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना ठीक है, कोई पाप नहीं। लेकिन ध्यान रखना की बात शरीर की हो रही है; मन की नहीं। मन की मूल ज़रूरत तो शांति है और शांति की तलाश में वो किसी चीज को पकड़ और छोड़ सकता है। मन अपनी जरूरत को अगर शरीर के साथ जोड़ देता है तो फिर आपकी, शरीर की जरूरतों को पूरी करने की दौड़ कभी समाप्त नहीं होगी। क्योंकि अब इनसे शांति पाने की कोशिश हो रही है, जो कि पूर्ण होगी नहीं।
मन को जरूरत है 'सत्य' की | सत्य ही उसका आनंद है, अंत है। तो विवेक को साथ रखो। विवेक से समक्ष खड़ी स्थिति के अनुसार निर्णय करते चलो– अप्रत्याशित; कभी स्थिति के साथ, कभी स्थिति के खिलाफ और कभी बस मौन।
विवेक सत्य का सारथी है।
सत्य को स्वीकार करने के लिए विवेक की शरण जाना चाहिए।
बहुत ही सुंदर है
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जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है। बुद्धी जब आत्मन की ओर घूमती है तो विवेक जागृत होता है । नीचे की परतों की तरफ़ रहती है अहंकार के साथ रहती
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