सोमवार, 6 सितंबर 2021

ज्ञानमार्ग से आनंद की ओर

        मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ बैचेन है, दुखी है, संताप में है। और यहाँ - वहाँ सुख  की तलाश में भटक रहे हैं। आप भटक हैं- कभी वस्तुओं से सुख की आस में, कभी स्त्री या रिश्तों से सुख की आस में | यह वस्तुओं और मनुष्यों से सुख की प्यास बुझाने का प्रयास ही "संसार" के उदय का कारण है । यह संसार कहीं बाहर नही है - हम सबके अंदर ही है। जब आपके अनंत प्रयास के बाद भी आपको सुख की प्राप्ती नहीं होती और अगर सुख मिलता भी है तो कुछ देर बाद ही उससे दुख मिलने लगता है। जैसे आपको कोई भोजन बहुत प्रिय है, और आपको वही भोजन हर रोज, हर बार मिले तो आप उससे दो- तीन दिन में ऊब ही जाते हैं, उससे उपर जाने पर आपका प्रिय भोजन भी ज़हर समान हो जाता है। 
  
      इसके विपरीत भी आप सुख की खोज में भटक रहे हो सकते हैं, अगर संसार के दुख से दुखी हो आप दूसरी ओर भाग सकते हैं–अब आप सुख की कामना से वस्तुओं का त्याग करते हैं, स्त्री-रिश्तों का त्याग कर संसार से संन्यास की ओर भागते हैं, परंतु सुख मिलेगा नहीं क्योंकी मूल में तो वही कमाना है जो संसार को जन्म देती है। इन सभी क्रियाओं और कर्मों का फल शायद कुछ भी ना निकले।

      आनंद का उदय आपके अंदर ही होता है। वह ऐसा रस है जो कि किसी वस्तु-विषय पर निर्भर नहीं है। आनंद की तलाश आपको अंदर की ओर मोड़ती है तब जीवन में आध्यात्म का जन्म होता है। अपने स्वरूप के ज्ञान को ही आध्यात्म कहते हैं। इस ज्ञान /बोध से ही आनंद की प्यास बुझती है। इस परमानंद अवस्था तक पहुंचने के कई मार्ग हैं: भक्ति मार्ग, योगमार्ग (कर्म मार्ग ) और, ज्ञानमार्ग।

      हर मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग पर अपने से ज्यादा अनुभवी गुरु की जरूरत पड़ती है । अत: इसके लिए आपको अपनी यात्रा जीवित गुरु से शुरू करनी है। बिना जीवित गुरु के आपका प्रयास विफल हो जाएगा या छोटे बच्चे की बकवाद के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

      ज्ञानमार्ग बाकी मार्गों में सबसे छोटा और सरल है। परंतु इस मार्ग पर गति करने के लिए आपको मुमुक्षु होना चाहिए और थोड़ी समझ - बुद्धि होनी चाहिए।
     
      ज्ञानमार्ग पर हम अद्वैत को साधते हैं अपने - प्रत्यक्ष अनुभवो द्वारा; प्रत्यक्ष अनुभव (स्वयं का अनुभव) ही आधार है। इस मार्ग पर चलते हुए हम अपनी विवेक– बुद्धि को बढ़ाते हैं और तर्क से इस महास्वप्न के आधारों को काटते है और उसके मिथ्या होने की घोषणा करते हैं।  

      ज्ञान से हम जानते हैं कि जो परिवर्तन हो रहा है वह शाश्वत नहीं है। शाश्वत केवल एक ही है जिसको हम अनुभवकर्ता/ साक्षी या "मैं" कहते हैं। साक्षी /अनुभवकुर्ता वह है जो सबका अनुभव कर रहा है, या जो सब देख रहा है पर प्रभावित नहीं होता है। इस साक्षी अनुभवकर्ता का निरंतर बोध ही चेतना कहलाती है। इस साक्षी की उपस्थिती का आलंबन ही मोक्ष है, मुक्ती है । यह स्थिती ही आनंद की स्थिती है। यही पूर्णम शून्यम सत्यम का उद्घोष है।

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