रविवार, 26 सितंबर 2021

मुक्ति

        क्या है ये "मुक्ति" जो सभी मनुष्यों की प्रथम चाह है! मुक्ति की अगर चाह भी है तो फिर, ये मुक्ति कैसे मिलेगी और किस से मिलेगी ?

        पहली बात जो पक्की है, ये है कि मुक्ति जीवन से तो नहीं है। मुक्ति मिलनी तो जीवन में ही चाहिए। मिलती भी है,  तो जीवन में ही मिलती है, उससे आगे –पीछे मिलने का कोई उपाय नहीं है। तो सबसे पहले मुक्ति का प्रश्न छोड़ दो, छोड़ दो की किस दिशा में आगे जाना है, कहा मिलेगी? प्रश्न करें की बंधन कहा है, क्या है, किस से हैं? आप अपने बंधनों(दुखों) को देखना और पहचाना शुरू करो। आप का बंधन/ दुख क्या है बस उसको खोजना है, पहचानना है। अब आपके जीवन में प्रथम बार चमत्कार घटित होगा, आपके बंधन/ दुःख हल्के हो जाएंगें। 
            
                  है न आश्चर्य!!!

          जैसे ही दुख को देख लिया, जान लिया वैसे ही उसका कारण भी पता चल जाता है। अब कारण जानने के पश्चात दुख और बंधनों का निवारण किया जा सकता है। ९९% मामलों में ये सब बस जान लेने से ही मिट जाते हैं। हम जान जाते हैं, कि इन सब दुखों का कारण हम स्वयं हैं– हम ही अंधेरे में रस्सी को सांप मान कर कंप रहे हैं, जैसे ही ये देख लिया कि केवल रस्सी ही है तो फिर कैसा भय ? आप भय-मुक्त हुए।

         आप का अज्ञान/ अंधकार ही आपका बंधन है। आपके चित्त का अंधकार प्रेम ही बंधन है। आपका जन्म अंधकार में भले ही हुआ हो परंतु, जीवन में प्रकाश पाना ही आपका लक्ष्य है। सभी के जीवन का यही उद्देश्य है कि प्रकाश को पाया जाए, प्रकाश की ओर बढ़ा जाए। अज्ञान से दूरी ही ज्ञान है। अज्ञान से दूरी ही आपकी मुुक्ती है। तो फिर उठो, जागो और प्रेम से लगे रहो ज्ञान प्राप्त 
करने की ओर। याद रखिए:
        संसार(जन्म - मृत्यु) तो बस खेल है, बस खेलो,
          जीत हार की बात मत करो, बस खेलो, 
             जो बस खेलते आया है, वो बस खेलता है। 
                 खेल ही आनंद है, उत्सव है।

 आप अपने जीवन के मालिक बनो, 
 निर्भरता छोड़ो, बड़े लक्ष्य की ओर ध्यान दो।
 स्वयं का ज्ञान प्राप्त करना सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है।
 स्वयं का ज्ञान होना ही मुक्ती है।
 स्वयं का ज्ञान होना ही कर्म मुक्ति है। 
 स्वयं का ज्ञान होता ही स्वयं से मुक्ति है।



सोमवार, 20 सितंबर 2021

गुरु –आईना

          आईना एक ऐसा शीशा है जो उस पर पड़ने वाली रोशनी को वापस परिवर्तित कर देता है। सबके घर में आईना तो उपलब्ध ही होता है। अध्यात्म में इस आईने का बहुत महत्व है। अगर आप देखें ठीक से तो आपको पता चलेगा की जो भी आईने के सामने आता है, आईना उसे वही दिखाता है; जो भी उसके सामने है, अब अगर आईने के सामने मानिए टमाटर है –तो आईना टमाटर दिखाएगा, आईने के सामने कोई बच्चा खड़ा है –तो आईना बच्चा ही दिखाएगा, आईने के सामने कोई जवान है –तो जवान ही दिखाएगा। आईने के सामने कोई वस्तु है तो आईना वही दिखाएगा। 
         
         यही इसकी खूबी है कि आईने के जो भी सामने पड़ जाए वही उपस्थित होता है, कोई बदलाव नहीं : ठीक वैसा– जैसा है। अध्यात्म से देखें तो आईना आपका अनुभवकर्ता है/ आत्मा है। यहां जो भी सामने आता है वही प्रकट होता है, अनुभव होता है। आईना सब को देखता तो है पर किसी भी परिस्थिति से खुद को जोड़ता नहीं है; कोई बच्चा सामने था तो बच्चा दिखा दिया, बड़ा सामने आता है तो बड़ा दिखा दिया और कोई चला गया तो चला गया आईना मौजूद है। आईना कभी पीछे नहीं भागता कि बच्चा मुझे पसंद आया, यह जवान मुझे पसंद है, कोई भी वस्तु मुझे पसंद है। ठीक है, जो सामने है दिखा दिया नहीं तो अपने आप में मौजूद रहता है। यही हमारा गुण होना चाहिए, यही हमारा स्वभाव होना चाहिए। संसार सामने दिखता तो है, उपस्थित तो है, दिख तो रहा है पर जहां पर उसका प्रतिबिंब दिख रहा है, छाया प्रगट है उतनी ही जगह पर दर्पण भी तो उपलब्ध है। दर्पण है पर वह प्रभावित नहीं होता। यह हमारा लक्ष्य है । जब हम आईने के सामने होते हैं तो हमें हमारा स्वरूप दिखाई देता है, उसका बोध हमें पता चलता है। वहां उस आईने के सामने हम खुद को ठीक से देख सकते हैं, संवार सकते हैं। अपनी की हुई त्रुटियों को हटा सकते हैं। इसीलिए तो आईना इतना महत्वपूर्ण है, जो आपको आपका स्वरूप खराब है, या आप सुंदर है बता देता है। आपने अपना स्वरूप देख लिया है, उस का बौध हो गया। अब आईने का काम खत्म अब आप आईने के सामने से हट जाते हैं, आपको पता है कि आप क्या हैं?

       अध्यात्म में गुरु ही वह आईना है जो कि हमें हमारे मूल स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इसी वजह से हमें गुरु के सानिध्य में इतना आनंद आता है, क्योंकि हम गुरु के सानिध्य में अपना ही स्वरूप देख रहे हैं, खुद को ही जान रहे हैं। इसी वजह से हम गुरु के सानिध्य में आनंद पाते हैं, क्योंकि हमें हमारे स्वरूप का बोध होता है और एक बार बोध हो जाने पर हम आगे निकल सकते हैं और आईने के सामने कोई और खुद के दर्शन कर सकता है। गुरु के अंदर इतना भी प्रयास नहीं होगा कि, आप कहें– जाना चाहते हैं, आप जाएं। आपने ले लिया, आपने जान लिया – आपका रूप क्या है, स्वरूप क्या है? 
सभी साथियों से निवेदन है– एक बार गुरु आईने के सामने आए अपना स्वरूप देखें और स्वयं अपने अंदर आनंद को प्रकट कर लें।

शनिवार, 11 सितंबर 2021

आनंद सूत्र

मनुष्य के दुःख मूल क्या है। 
             विचार –विचार सतत चलने वाली क्रिया है । 

यह आपके दुःख कारण कैसे है?
            विचार जब तक हैं, वो गतिमान ही रहेंगे – यही इसका गुण है। अब विचार कैसे भी प्रकट हो सकते हैं- अच्छे, बुरे, सच्चे –झूठे। अब अगर आपके विचार के अनुसार आपका कार्य नहीं होता तो दुःख या कार्य के अनुसार आपके विचारो का गठन नहीं होता तो दुःख। 

एक मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा क्या है - चाहे वो कोई भी हो ?
           इन विचारों से मुक्ति या इन विचारों पर जय।

क्या यह संभव है ?
            संभव है । 

सूत्र क्या है ?  सत्य का सँग !!
           दुखी व्यक्ति का सत्संग तक पहुंचना भी कठिन जान पड़ता है। क्योंकि माया का परदा पड़ा है –आसा का। एक आस बांध रहती है कि जहां आज दुःख है वहा कल सूख होगा। यह मृगजल जैसा है दिखाई देता है ; कि पानी है, परंतु जब वहां जाओगे तो वहां नहीं है, किसी और जगह है। ऐसी ही स्थिती मानव जाति की है।
ऐसे मृगजल की भ्रांति से ग्रस्त व्यक्ति को केवल यह बोध कि यह मृगजल है सत्य नहीं– बचा सकता है। 

यह बोध कैसे हो ?, 
          बोध प्राप्त व्यक्ति ही ऐसा बता सकते हैं, उनको हम गुरु कहते हैं। गुरु आपको बोध कराते है - सत्य का और आगे बढ़ जाते हैं। 

बोध की विधि क्या है ? 
 १. श्रवण : सुनना /देखना
              जिसकी बुद्धि प्रखर है, प्रज्ञा तेज है, उनको केवल सुनना/ देखना ही प्रयाप्त है। ठीक से सुनने/देखने पर ही बोध हो जाएगा। जैसे मछुआरों को लहर देख कर ही तूफान आएगा या नहीं पता चल जाता है। जैसे अग्नि को देखते ही उष्णता का पता चल जाता है।

२.मनन:
           अब अगर तीव्र प्रज्ञा नहीं है तो फिर मनन कुंजी है| मनन भी विचारों के समान ही एक स्तत क्रिया है। पर यह एक ही दिशा में गतिमान है ।
गुरु से प्राप्त ज्ञान को श्रवण करना है, फिर ज्ञान को अनुभव तक पकाने के लिए तर्क और विवेक की अग्नि पर चढ़ाना है।

३. निधिध्यासन:
             यह एक मास्टर चाबी है। इससे काम बनने की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ पर हम गुरु से सुने ज्ञान पर मनन कर उपलब्ध हुए अनुभव को उपयोग करते हैं। यह, अंतिम विधि है। जब ज्ञान से उपजे अनुभव को आप प्रयोग करते | यही सतत समाधी में है। 

      सारी क्रिया ऐसे है, जैसे, पहली बार खाना बनाने की कोशिश: 
१. सुना/ देखा– कैसे-कैसे बनाते हैं और आ गया। 
२. कोशिश (मनन) –खुद तैयारी की और बनाने का प्रयास किया जब तक सही से नहीं बना।
३. आनंद - एक बार सिख लिया कैसे बनाते हैं फिर सदा के लिए सिख लिया | अब बनाना है और खाना है –आनंद है।

           एक बार पुन: अपने प्रश्न को देखते है विचारों का भार है, दुख है । सुख - आंनद कैसे मिले
उत्तर है– असत्य का नाश कर दें | 
कैसे ?
सत्य के प्रकाश से।
सनातन सत्य: जो परिवर्तन करता है वह असत्य है। इसका श्रवण हुआ, ज्ञान प्राप्त हुआ।

मनन: परिवर्तन करने वाली सभी वस्तुओं, व्यक्तियों, भावनाओ को तर्क और विवेक से जांचना और परिवर्तनीय में छिपे अपरिवर्तनीय के बोध को जानना।

निधिध्यासन: सतत इस बोध का उपयोग करना। चेतना में जीना है। यही साक्षी बोध है। साक्षी की अवस्था में आपको विचारों का भार नहीं है। आप विचारों के दृष्टा हैं। यही परमानंद अवस्था है।

बालवत स्वभाव को कोन समझेगा ।
जो खुद खो गया उसको कोन खोजेगा।।
मोन से टकरा रहा है आनंद, पर जिसे 
कहा ना जा सके उसे कोन कैसे कहेगा?
मन मयूर की प्यास बुझा दे।
हे गुरु मोहे परमआनंद पिला दे।।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

आनंद में बाधा नहीं

          आत्मज्ञान तो सरलता से उपलब्ध है फिर भी हमारे बोध में नहीं आ पता है। इसका क्या कारण है? जो कारण दिखाई देता है– वह है शरीर और मन से आसक्ति। क्योंकि जो दिखाई देता है वह तो केवल भौतिक शरीर है। जिसके जागने से यह भौतिक शरीर मालूम पड़ता है, उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यहां हम मन को सुक्ष्म शरीर से उपयोग कर रहे हैं। यह सुक्ष्म शरीर ही है जो भौतिक शरीर को अनुभव कर रहा है, महसूस कर रहा है।

          हम-अधिक स्थूल शरीर को ही महत्व देते हैं। सुक्ष्म को कम देते है पर सुक्ष्म शरीर का महत्व स्थूल से ज्यादा है। सुक्ष्म शरीर भी अंत में मिट जाता है– कारण शरीर ( अस्तित्व ) में मिल जाता है और फिर पुनः प्रकट होता है। जैसे– बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष | इसी प्रकार स्थूल व सुक्ष्म शरीर कारण में विलय, कारण से उत्पन्न होते हैं। सुक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि) अज्ञानता वश रोज कारण में विलीन होते हैं–गहरी नींद में। पुन: निकल आते हैं।

           यहां कार्य सुक्ष्म और स्थूल है और सुसुप्ति कारण है। जो कारण और कार्य कोई भी नहीं है वह चेतन(दृष्टा) है। दृष्टा न तो कार्य है न ही कारण है वह तो इन दोनों को देखने वाला है। इसका महत्व न के बराबर है, क्योंकि मनुष्य स्थूल शरीर का ही लाभ (उपयोग), आनंद ले रहे हैं, इसके न रहने पर दुख देख रहे हैं। ऐसा सभी के साथ है । कोई ज्ञानी अगर देह भाव से मुक्त भी हो तो भी उस पर आश्रित लोग तो दुख पाते हैं - क्योंकि वो तो उनसे लाभ ले रहे थे। अतः देह को ही सत्य माना गया है |

              जब यह पता चलता है कि इस स्थूल और सुक्ष्म के मिटने पर भी यह दृष्टा /चेतन्य सदा रहता ही है। पर इसके होने का आंनद नहीं ले पा रहे हैं। दृष्टा ही परमसत्य है, परमानंद है पर उसका लाभ न ले पाना, इसके महत्व को कम करता है। अब इस आनंद को कैसे पाना है इसको हम देख सकते हैं।
 इस पर क्रम से चल सकते हैं:
 १. स्थूल से सुक्ष्म में ज्यादा आनंदित रहें। 
                पदार्थ तो क्षणीक रूप से ही चाहिए, जैसे- रोटी कपडा और मकान– जिससे स्थूल शरीर चलता रहे । जब स्थूल इच्छाएँ पूर्ण हैं, तब आपके पास जो खाती समय है- क्या आप तब प्रसन्न हो ? 
जब एकांत में हो तो क्या प्रसन्न हो ?
अपने आप प्रसन्न हो ? 
                जब शरीर की ज़रूरत पूरी हो तो पीछे रह जाता 'मन', चित्त, सुक्ष्म शरीर | इसको सुख की भुख है, इसको प्रसन्ना चाहिए - यह सुख की तरफ जाता है। अब आपको यह चित्त खोज में भेजेगा । यहाँ से मार्गों की आवश्यकता का उदय होता है– संसार या आध्यात्म। 
 अगर मन सुख के लिए बाहर जाता है तो संसार का निर्माण करता है। और यही वृत्ति संसार को विस्तार देती है। संसार में कोई सुख पूर्ण नहीं है, यह तो हम सबका अनुभव है। इस पर अधिक क्या कहना।

२. सुक्ष्म से ज्यादा चेतना में आनंदित रहें। यहाँ भी मार्गों की व्यवस्था है:
        १. प्रेम (भक्तिमार्ग) गुरु से 
        २. बोध ( ज्ञानमार्ग) गुरु ज्ञान से
दोनों का अंतिम परिणाम आत्मज्ञान और आनंद है।
आत्मज्ञान और समर्पण से ज्ञानी और भक्त दोनों ही आत्म आनंद को पा सदा खुश रहते हैं।

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

आपका अनुभव ही आपका सत्य है

          किसी व्यक्ति का जो अनुभव है वह उस व्यक्ति के लिए– क्या सत्य है, क्या असत्य है, निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है। यहां अस्तित्व (जगत) में जो भी हो रहा है, जितना उसकी बुद्धि में आया, वह उसका अनुभव है और यही अनुभव उसके लिए सदा सत्य होता है।
यहां अनुभव के तीन प्रकार हैं:
१. जगत का अनुभव– जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा होता है।
२. शरीर का अनुभव– जिसका अनुभव आधा इंद्रियों द्वारा और आधा मानसिक रूप से होता है।
३. चित्त यह एक निजी व्यक्तिगत (मानसिक) अनुभव है जैसे कि विचार, भावना, कल्पना और यह चित्त में ही अनुभव होता है। 
      
          जगत, शरीर और मन जब एक रुप में बताने हों तो उन्हें चित्त कह सकते हैं। चित्त एक स्तरीय रचना है। यह सभी नाद रचनाए हैं और सभी अनुभव चित्त के अनुभव हैै। अनुभव अस्तित्व से उत्पन्न होता है और अस्तित्व में ही लोप होता है। यह बुद्धि के अंदर है अतः इसको जाना जा सकता है।  

          जब सभी को अनुभव हों रहें हैं , सभी ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं, तो फिर यहां दुख और संताप क्यों है? क्योंकि हम किसी अनुभव को सदा के लिए एक जैसा रखना चाहते हैं। और किसी भी अनुभव से आसक्ति होने पर बंधन का जन्म होता है। अब ये बंधन ही आपको कर्म, कर्म फल, सुख और दुख से गर्सित करते हैं। यह चित्त का दोष है, इस दोष के कारण अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त ज्ञान अपनाया नहीं गाया है। यही हमारा अज्ञान है।

           अनुभवकर्ता (आत्मा) के सिवा अन्य किसी भी अनुभव से आसक्ति बंधन है, गुरु आप को बंधन में से मुक्त रूप दिखा सकता है। इस बोध से आप मुक्त हो ऐसा जान सकते हैं। 
    
            अपरोक्ष अनुभव , प्रत्यक्ष प्रमाण से प्राप्त यह सत्य व्यवस्थित तरीके से संयोजित होने पर संस्कार रूप में चित्त में ज्ञान बन कर प्रकट होता है। स्वयं का अनुभव ही ज्ञान है। आत्मनुभ्व ही पूर्ण–ज्ञान है।

            आप सदैव से मुक्त हैं, बस आपने बंधन को अपना मान लिया है, इसके बोध (छूटने) पर यह सत्य सवतः ही प्रकट हो जाएगा। सत्यम शिवम् सुंदरम का उदघोष सत्यापित हो जाएगा।


सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रेम गली अति साँकरी जा में दो ना समाए - भक्तिमार्ग

      भक्तिमार्ग से अद्वैत की यात्रा सबसे छोटी है। भक्तिमार्ग सर्मपण का मार्ग है। यहाँ भक्त अपने आप को मिटाकर अपने से उच्च गुणों /अवस्था वाले गुरु, ईश्वररूप (मान्य) को पूर्ण  समर्पण करता है। यहाँ खुद को मिटाने का संबंध कुछ भी घटाने से नहीं है। जैसे आपको इस संसार में भी यदि क्षणिक रूप से किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस क्षण के लिए आपका कोई और अनुभव नही होता है । आपको केवल प्रेमी / प्रमिका ही सुनाई, दिखाई और महसूस होगा | उसके गुण-दोष सारे ही समाप्त हो जाते हैं । 

     ऐसी ही स्थिती एक भक्त कि है– वह खो जाता है और स्वयं भगवान हो जाता है। परंतु आज– कल ऐसा भक्त का मिलना चमत्कार ही होगा। इस पूरी पृथ्वी पर थायद ही ऐसा कोई मिले। इस काल में जहाँ मनुष्य शंकाओं, भ्रम और अंहकार की पाठशाला में ही जन्म पाता है। वहाँ समर्पण जैसे गुण का उदय चमत्कार ही होगा। इस मार्ग में भी अधिक भटकने और धीमे विकास की बाधाएं है। भक्त की समर्पणता से उसके सारे शुभ– दोष (चित्तवृत्ति) मिट जाएगे। फिर उसकी एकता होगी स्वयं से । 

   जब ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, तब वह विरला भक्त कह पाता है - प्रेम गती अति साँकरी जा में दो ना समाए।

      भक्तिमार्ग से ज्ञानमार्ग में थोड़ा प्रयास है, ज्ञानर्माग में हम बोध के लिए साधना करते, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने शुभों- दोषों (चित्त की परतों) को शांत करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रवण मनन निधिध्यासन को अपनाते हैं। आत्मबोध प्राप्त करते हैं । आत्मज्ञान होने पर किसी ज्ञानी को भी पता चलता है कि – संसार एक महास्वप्न है और केवल दृष्टा ही सदा है, निरंतर है। 

       इस ज्ञान के साथ अब ज्ञानी में शाश्वत प्रेम और समर्पणता आती है और अब अद्वैत अवस्था की प्राप्ती होती है। जहाँ इस काल में "प्रेम" सहज नहीं है, हमें पहले ज्ञानमार्ग से बोध की प्राप्ती के लिए जाना चाहिए। क्योंकि इन सभी मार्गो की अंतिम मंजील एक ही है– स्वयं की जागृति, परमानंद अवस्था।

ज्ञानमार्ग से आनंद की ओर

        मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ बैचेन है, दुखी है, संताप में है। और यहाँ - वहाँ सुख  की तलाश में भटक रहे हैं। आप भटक हैं- कभी वस्तुओं से सुख की आस में, कभी स्त्री या रिश्तों से सुख की आस में | यह वस्तुओं और मनुष्यों से सुख की प्यास बुझाने का प्रयास ही "संसार" के उदय का कारण है । यह संसार कहीं बाहर नही है - हम सबके अंदर ही है। जब आपके अनंत प्रयास के बाद भी आपको सुख की प्राप्ती नहीं होती और अगर सुख मिलता भी है तो कुछ देर बाद ही उससे दुख मिलने लगता है। जैसे आपको कोई भोजन बहुत प्रिय है, और आपको वही भोजन हर रोज, हर बार मिले तो आप उससे दो- तीन दिन में ऊब ही जाते हैं, उससे उपर जाने पर आपका प्रिय भोजन भी ज़हर समान हो जाता है। 
  
      इसके विपरीत भी आप सुख की खोज में भटक रहे हो सकते हैं, अगर संसार के दुख से दुखी हो आप दूसरी ओर भाग सकते हैं–अब आप सुख की कामना से वस्तुओं का त्याग करते हैं, स्त्री-रिश्तों का त्याग कर संसार से संन्यास की ओर भागते हैं, परंतु सुख मिलेगा नहीं क्योंकी मूल में तो वही कमाना है जो संसार को जन्म देती है। इन सभी क्रियाओं और कर्मों का फल शायद कुछ भी ना निकले।

      आनंद का उदय आपके अंदर ही होता है। वह ऐसा रस है जो कि किसी वस्तु-विषय पर निर्भर नहीं है। आनंद की तलाश आपको अंदर की ओर मोड़ती है तब जीवन में आध्यात्म का जन्म होता है। अपने स्वरूप के ज्ञान को ही आध्यात्म कहते हैं। इस ज्ञान /बोध से ही आनंद की प्यास बुझती है। इस परमानंद अवस्था तक पहुंचने के कई मार्ग हैं: भक्ति मार्ग, योगमार्ग (कर्म मार्ग ) और, ज्ञानमार्ग।

      हर मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग पर अपने से ज्यादा अनुभवी गुरु की जरूरत पड़ती है । अत: इसके लिए आपको अपनी यात्रा जीवित गुरु से शुरू करनी है। बिना जीवित गुरु के आपका प्रयास विफल हो जाएगा या छोटे बच्चे की बकवाद के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

      ज्ञानमार्ग बाकी मार्गों में सबसे छोटा और सरल है। परंतु इस मार्ग पर गति करने के लिए आपको मुमुक्षु होना चाहिए और थोड़ी समझ - बुद्धि होनी चाहिए।
     
      ज्ञानमार्ग पर हम अद्वैत को साधते हैं अपने - प्रत्यक्ष अनुभवो द्वारा; प्रत्यक्ष अनुभव (स्वयं का अनुभव) ही आधार है। इस मार्ग पर चलते हुए हम अपनी विवेक– बुद्धि को बढ़ाते हैं और तर्क से इस महास्वप्न के आधारों को काटते है और उसके मिथ्या होने की घोषणा करते हैं।  

      ज्ञान से हम जानते हैं कि जो परिवर्तन हो रहा है वह शाश्वत नहीं है। शाश्वत केवल एक ही है जिसको हम अनुभवकर्ता/ साक्षी या "मैं" कहते हैं। साक्षी /अनुभवकुर्ता वह है जो सबका अनुभव कर रहा है, या जो सब देख रहा है पर प्रभावित नहीं होता है। इस साक्षी अनुभवकर्ता का निरंतर बोध ही चेतना कहलाती है। इस साक्षी की उपस्थिती का आलंबन ही मोक्ष है, मुक्ती है । यह स्थिती ही आनंद की स्थिती है। यही पूर्णम शून्यम सत्यम का उद्घोष है।

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...