सोमवार, 20 सितंबर 2021

गुरु –आईना

          आईना एक ऐसा शीशा है जो उस पर पड़ने वाली रोशनी को वापस परिवर्तित कर देता है। सबके घर में आईना तो उपलब्ध ही होता है। अध्यात्म में इस आईने का बहुत महत्व है। अगर आप देखें ठीक से तो आपको पता चलेगा की जो भी आईने के सामने आता है, आईना उसे वही दिखाता है; जो भी उसके सामने है, अब अगर आईने के सामने मानिए टमाटर है –तो आईना टमाटर दिखाएगा, आईने के सामने कोई बच्चा खड़ा है –तो आईना बच्चा ही दिखाएगा, आईने के सामने कोई जवान है –तो जवान ही दिखाएगा। आईने के सामने कोई वस्तु है तो आईना वही दिखाएगा। 
         
         यही इसकी खूबी है कि आईने के जो भी सामने पड़ जाए वही उपस्थित होता है, कोई बदलाव नहीं : ठीक वैसा– जैसा है। अध्यात्म से देखें तो आईना आपका अनुभवकर्ता है/ आत्मा है। यहां जो भी सामने आता है वही प्रकट होता है, अनुभव होता है। आईना सब को देखता तो है पर किसी भी परिस्थिति से खुद को जोड़ता नहीं है; कोई बच्चा सामने था तो बच्चा दिखा दिया, बड़ा सामने आता है तो बड़ा दिखा दिया और कोई चला गया तो चला गया आईना मौजूद है। आईना कभी पीछे नहीं भागता कि बच्चा मुझे पसंद आया, यह जवान मुझे पसंद है, कोई भी वस्तु मुझे पसंद है। ठीक है, जो सामने है दिखा दिया नहीं तो अपने आप में मौजूद रहता है। यही हमारा गुण होना चाहिए, यही हमारा स्वभाव होना चाहिए। संसार सामने दिखता तो है, उपस्थित तो है, दिख तो रहा है पर जहां पर उसका प्रतिबिंब दिख रहा है, छाया प्रगट है उतनी ही जगह पर दर्पण भी तो उपलब्ध है। दर्पण है पर वह प्रभावित नहीं होता। यह हमारा लक्ष्य है । जब हम आईने के सामने होते हैं तो हमें हमारा स्वरूप दिखाई देता है, उसका बोध हमें पता चलता है। वहां उस आईने के सामने हम खुद को ठीक से देख सकते हैं, संवार सकते हैं। अपनी की हुई त्रुटियों को हटा सकते हैं। इसीलिए तो आईना इतना महत्वपूर्ण है, जो आपको आपका स्वरूप खराब है, या आप सुंदर है बता देता है। आपने अपना स्वरूप देख लिया है, उस का बौध हो गया। अब आईने का काम खत्म अब आप आईने के सामने से हट जाते हैं, आपको पता है कि आप क्या हैं?

       अध्यात्म में गुरु ही वह आईना है जो कि हमें हमारे मूल स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इसी वजह से हमें गुरु के सानिध्य में इतना आनंद आता है, क्योंकि हम गुरु के सानिध्य में अपना ही स्वरूप देख रहे हैं, खुद को ही जान रहे हैं। इसी वजह से हम गुरु के सानिध्य में आनंद पाते हैं, क्योंकि हमें हमारे स्वरूप का बोध होता है और एक बार बोध हो जाने पर हम आगे निकल सकते हैं और आईने के सामने कोई और खुद के दर्शन कर सकता है। गुरु के अंदर इतना भी प्रयास नहीं होगा कि, आप कहें– जाना चाहते हैं, आप जाएं। आपने ले लिया, आपने जान लिया – आपका रूप क्या है, स्वरूप क्या है? 
सभी साथियों से निवेदन है– एक बार गुरु आईने के सामने आए अपना स्वरूप देखें और स्वयं अपने अंदर आनंद को प्रकट कर लें।

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