गुरुकृपा कोई विशेष चीज़ होती नहीं, क्योंकि वो सदा है, सर्वत्र है। मनुष्य के लिए सत्य ही गुरु है और जीवन ही गुरुकृपा है।
जीव इंद्रियों का ग़ुलाम है और इंद्रियों को कभी कुछ ऐसा दिखेगा ही नहीं जो सदैव और सर्वत्र हो। तुम्हारी आँखो ने कभी कुछ ऐसा देखा है जो सदा हो और हर जगह हो, कुछ देखा है? इंद्रियाँ तो उसी का अनुभव कर पाती हैं जो कभी-कभी और कहीं-कहीं हो। तो फिर जीव के लिए गुरुकृपा के विशिष्ट मायने होते हैं। विशिष्ट जीव के लिए गुरुकृपा भी विशिष्ट चीज़ हुई।
क्या है गुरुकृपा?
गुरु का शब्द तुम्हारे सामने पड़ जाए, तुम पढ़ लो, ये गुरुकृपा है।
गुरु की वाणी तुम्हारे कान में पड़ जाए। वो गुरुकृपा है।
हमारे लिए गुरुकृपा वही है जिसमें गुरु साकार होता जाए। क्योंकि हम –तुम निराकार नहीं, इसीलिए हमारे लिए गुरुकृपा भी निराकार रूप में बहुत अर्थ नहीं रखती।
हमारी– तुम्हारी ज़िद के कारण कि मैं गुरुकृपा तभी मानूँगा जब गुरु साकार होकर मेरे सामने आए, गुरु को साकार होना पड़ा। तुमने कहा कि मैं जानूँगा ही तभी जब शिक्षा शब्द रुप में मेरे सामने आए, मैं समझूँगा ही तभी जब शब्दों में समझाओं तुम, तो गुरु को शब्द का उच्चारण करना पड़ा।
गुरु समाधिस्थ है, गुरु की प्रसुप्ति अति गहरी है, लेकिन तुम्हारा कहना है कि तुम सुनोगे ही तभी, समझोगे ही तभी जब गुरु चैतन्य रूप में समझाए, तो फिर शब्द आता है तुम्हारे सामने। सोता हुआ जग करके शब्द उच्चारित करता है, ओंकार की ध्वनि होती है, जगत प्रणवमय हो जाता है। जिन्हें समझना होता है, वो इतने में समझ लेते हैं।
कई होते हैं जो कहते हैं, हमें अभी भी समझ में नहीं आया, तो गुरु उनके पीछे-पीछे और चलता है। वो कहता है कि अगर तुमको लिखे हुए शब्द से नहीं समझ में आता, तो आओ सामने बैठ करके वाणी सुन लो। ये तुम्हारे लिए और उच्चतर गुरुकृपा हुई। तुम्हारे लिए उच्चतर गुरुकृपा हुई और गुरु के लिए, समझ लो, और बोझ हो गया। पहले तो उसे सिर्फ़ उच्चारण करना था, अब वो सशरीर सामने बैठे और बोले। क्यों बोले? क्योंकि तुम्हारी ज़िद है कि तुम आमने-सामने बैठोगे, तभी तुम सुनोगे और समझोगे।
गुरु अपने स्वभाव के विरूद्ध जा रहा है। गुरु का स्वभाव क्या है? मौन। और तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो बोले। गुरु का स्वभाव क्या है? समाधि। पर तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो चैतन्य हो जाए।
तो बहुत होते हैं जिनका काम इतने में बन जाता है, वो कहते हैं, गुरु के सामने बैठे, बातें सुनी, काम बन गया। कुछ होते हैं फिर जो इतने में भी नहीं मानते, वो कहते हैं, अभी तो कई इंद्रियाँ हैं जिन्हें गुरु का अनुभव नहीं हुआ; आँखो को हुआ, कान को हुआ, और तो हुआ ही नहीं। तो फिर उनको समझाने के लिए गुरु को विवश होकर उनके जीवन में उतरना पड़ता है। गुरु को वो सब करना पड़ता है जो गुरु के स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध है।
सत्य असंग होता है, लेकिन फिर शिष्य की ख़ातिर गुरु को देह का, जीव का संग करना पड़ता है। सत्य अनिकेत होता है, लेकिन शिष्य की ख़ातिर गुरु को निकेतन भी ग्रहण करना पड़ता है—अनिकेत माने जो किसी घर में नहीं रहता—शिष्य की ख़ातिर गुरु घरवाला भी बन जाता है।
और गुरुकृपा का, तुम समझ लो, उत्कर्ष ही तब हो गया जब तुम गुरु को विचलित ही कर दो। ये बात सुनने में बड़ी अजीब लगेगी क्योंकि आत्मा तो अचल, अविचल होती है। सत्य का स्वभाव है अचलता, अकम्प, अडिग, अचल। ऐसा होता है सत्य। पर कई दफ़े तुम्हारी ज़िद होती है कि हम सुनेंगे ही तब जब गुरु भी हमारी ही तरह विचलित हो जाए, तब तुम्हारी ख़ातिर गुरु विचलित होकर भी दिखा देता है। यहाँ तक भी विचलित हो सकता है कि तुम्हारी पिटाई ही लगा दे। ये गुरुकृपा की पराकाष्ठा हो गई कि गुरु ने तुमको लगाए दो डंडे—क्योंकि सत्य तो सर्वथा अहिंसक होता है।
तुम्हारी ख़ातिर अगर सत्य को डंडा उठा लेना पड़ा, तो ये गुरु के प्रेम का ऊँचे-से-ऊँचा प्रमाण है। इतना चाहता है वो तुमको कि तुम्हारे ख़ातिर उसने अपना स्वभाव भी त्याग दिया। ऐसे होती है गुरुकृपा।
गुरु-शिष्य का खेल ही विचित्र है। ऊपर से तो गुरु शिष्य को यही सीख देता है कि हम सिखा रहे हैं, तुम सीखो, और सीखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, लेकिन अंदर-ही-अंदर घटना उल्टी घट रही होती है। शिष्य में अगर इतनी सामर्थ्य ही होती कि वो ज़िम्मेदारीपूर्वक सीख सकता, तो वो शिष्य क्यों होता?
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति, पूजामूलं गुरुर्पदम्।
मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरूर्कृपा॥
ध्यान का मूल, गुरु की मूर्ति है।पूजा का मूल, गुरु के चरण कमल हैं।मंत्र का मूल, गुरु के शब्द हैं।मोक्ष का मूल, गुरु की कृपा है।
~(गुरुगीता, श्लोक ७६)