मंगलवार, 22 नवंबर 2022

आपका प्रयास और मुक्ति

 मुक्ति की चाह ही मनुष्य की सबसे बड़ी चाह है। और मुक्ति की राह सबके लिए अलग है। सबकी परिस्थिती अलग - अलग होती है। सबके अलग - अलग बंधन हैं।

सबका अंतमन 'सत्य' को जानता है और नहीं भी। क्योंकि जहाँ भी बात सत्य की चल रही हो आपका मन वहाँ राजी हो जाता है। सत्य मन से परे है पर उसका अहसास मन को होता है।

 यही हमारी सबसे विकट समस्या है - कि कुछ है तो सही पर मन उसको पा नहीं सकता।

करें अब क्या ? चाहत तो है 'सत्य' की पर मिलता वो दिखाई नहीं देता। अब या तो हम सत्य है ही नहीं मान लें और जैसे जी रहे हैं, वैसे ही जीते मान रहें। जैसे जी रहें हैं वैसे तो हम जीना चाहते नहीं।

तो फिर 'सत्य' के लिए प्रयास करते रहे।

सत्य के लिए प्रयास कैसे करें, जब बो से मन बाहर की बात है? ‘असत्य’ से दूर रह कर ही सत्य के समीप रह सकते हैं। असत्य हम से दूरी, असत्य को हराने की कोशिश ही जीवन में आनंद का संचार करती है।

असत्य क्या है? ये ही जानना आपका ध्येय है। मन को मुक्ति चाहिए, आनंद चाहिए, क्योंकि मुक्ति और आनंद आपका स्वभाव है। जो भी गुण, विचार, व्यक्ति आपको मुक्ति से दूर करें वो है असत्य,  उसको हटाने पर आपको मुक्ति की समीपता का पता चलता है।

अपने लिए ईमानदार बने, अपने हर काम को जाँच लें - अपने बंधनों को जान लें, तभी आप बंधनों को काट सकते हैं। इसके लिए आपको किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। परंतु एक गुरु के सानिध्य में बधनों का पता जल्दी लग सकता है, जल्दी मुक्ति की संभावना होती है।


सोमवार, 21 नवंबर 2022

सत्य की ओर

 राम घर मिल जाएँ तो अच्छा है।

 राम घर न मिलें तो अच्छा है। 

तलाश राम की जारी रखें तो अच्छा है।

गुरु घर मिल जाएँ तो अच्छा है। 

गुरु घर न मिलें तो अच्छा है। 

तलाश गुरु की जारी रखें तो अच्छा है। 

आत्म-गुरु की जागृती हो तो अच्छा है।

तलाश सत्य की जारी रखें तो अच्छा है। 

पल-पल लूट रहे हो दुनिया में ये क्या अच्छा है?

सहारा ढूंढ रहे हो बूतों में ये क्या अच्छा है?

घुल जाओ राम की तलाश में बस यही अच्छा है।।

जिसमें राम का सार नहीं उसे छोड़ना अच्छा है।।

🙏

रविवार, 20 नवंबर 2022

सत्य ही ध्येय

 कितना मुर्ख था मैं जिसे समझा सच

वो दुनिया तो जीवन का धोखा है

डर, अंधेरे, रौशनी को तडपाती है

रौशनी मिलती नहीं 

गुरु की तड़प, गुरु मिला नहीं

सत्य की तड़प से गुरु मिला

गुरू तो गुड़ की तरह है

जीवन की कड़वाहट हर लेता है 

शहद से जीवन को प्रकट कर देता है।

 यहाँ हम मुफ्त में ठगे जा रहे हैं 

जो डरा नही सकते उनसे डरे जा रहे हैं।

 जब तक मिलता नहीं सुकुन तड़प जारी है 

= जब मिल जाए तो फिर बाँट की बारी है।


🙏

रविवार, 17 अप्रैल 2022

🌼आत्मज्ञान🌼

 जीवन आपको व्यस्त रखे है, उलझाए हुए है, जीवन लगातार गतिमान है। कुछ-न-कुछ नया लगातार आपके सामने आ ही रहा है। कोई-न-कोई चुनौती आपके सामने है। कोई पल ऐसा नहीं है जिसने आपको छुट्टी दे दी हो कि अभी कोई दायित्व नहीं। हमेशा कोई-न-कोई बात अधूरी है, कुछ-न-कुछ समस्या बनी ही हुई है। 

तो नतीजा यह है कि घटनाएँ लगातार घट रही है और आप उन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए विवश हैं। क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं आप, आपको यह समझने के लिए अलग से वक़्त नहीं मिल रहा। आप सभी के जीवन में ऐसे दिन आए हैं न जब एक के बाद एक चुनौती या समस्या या काम खड़ा होता रहता है? और कई बार तो एक ही समय पर कई लंबित काम सामने होते हैं, ऐसा हुआ है? 

और जो कुछ हो रहा है, वह बड़े अनायोजित तरीके से हो रहा है। आपको पहले से पता नहीं था कि दोपहर दो बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी और दोपहर साढ़े तीन बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी, आप नहीं जानते थे। बस एक के बाद एक लगातार प्रवाह में स्थितियाँ बदलती जा रही हैं और आप आबद्ध हैं उनमें से हर स्थिति को जवाब देने के लिए, कोई प्रत्युत्तर देने के लिए, प्रतिक्रिया करने के लिए। तो जीवन हमारा ऐसे बीतता है। क्या हुआ, किसने किया, अच्छा किया, कि बुरा किया, जो हो रहा है, वह कैसे हो रहा है, इस पर हम ग़ौर नहीं कर पाते। 

आत्मज्ञान का मतलब होता है ठीक तब जब जीवन की गति चल रही है, आप इस बात के प्रति जागरूक हो जाएँ कि आप बिना उस गति को रोके भी उस गति से बाहर हो सकते हैं। प्रकृतिगत गति चलती रहती है और आप उस गति के मध्य भी शून्य और शांत हो सकते हैं। जब आप उस गतिशीलता से दूर होकर, बाहर होकर खड़े हो जाते हैं तो आपको दिखाई देने लग जाता है कि यह चल क्या रहा है—चलना माने गतिमान होना—यह ग़लती किसकी है, कौन कर रहा है, यह हरकतें कौन कर रहा है, यह काम पर किसने डाला —यह आत्मज्ञान है। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ चलती हुई चीज़ पर नज़र रखना। क्या चल रहा है? प्रकृति का सतत् बहाव चल रहा है। आपको नज़र रखनी है। यह क्या हो गया उस बहाव में? अभी-अभी मुँह से शब्द निकल गया, उस शब्द के पीछे कौन था? शब्द के पीछे तीन हो सकते हैं – प्रकृति, अहम्, परमात्मा। आत्मज्ञान का मतलब है पता हो कि कहीं पहले दो तो नहीं थे। पहले दो में भी अगर पहला था तो कोई बात नहीं। आपके मुँह से ध्वनि निकले तो वह आपकी डकार हो सकती है न? अगर आपके मुँह से डकार निकली है, तो कर्ता कौन है? प्रकृति। 

आपके पेट में भोजन पक रहा है, इसमें आपका कोई संकल्प नहीं शामिल है; यूँ ही हो रहा है। तो इस कर्म का कर्ता कौन है? प्रकृति। आपके पेट में भोजन पच रहा है, अभी कर्ता कौन है? प्रकृति। जिस चीज़ की कर्ता प्रकृति हैं, हमने जान लिया कि उसकी कर्ता प्रकृति है। और आप भोजन ग्रहण क्या कर रहे हैं, इसका कर्ता कौन है? इसका कर्ता अहम् हो सकता है, अधिकांशत: अहम् ही होता है। 

बहुत कम लोग होते हैं जो प्रकृति के अनुसार भोजन ग्रहण करें। ज़्यादातर लोग भोजन ग्रहण करते हैं अहम् के अनुसार। और ऐसे लोग जो परमात्मा के अनुसार भोजन ग्रहण करें, वो और भी कम होते हैं। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ कि आपको साफ़ पता हो कि कर्म के पीछे कौन है। यह अभी जो आपने निवाला भीतर डाला, वह शरीर की माँग थी? अगर शरीर की माँग थी, तो कर्ता कौन हुआ? प्रकृति। वह अहम् की माँग थी अगर, तो कर्ता हुआ अहम्—या कि ‘रूखी सूखी खाई के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी ना ललचावे जी’, अब कर्ता कौन है? परमात्मा। यह आत्मज्ञान है। मैं जो कर रहा हूँ, उसके पीछे कर्ता कौन है, यह पता कर लो —यही आत्मज्ञान है। 

बहुत गड़बड़ बात है अगर तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है अहंकार। उससे श्रेष्ठ बात है कि तुम जो कर रहे हो, उसकी कर्ता है प्रकृति। श्रेष्ठतम बात है जब तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है परमात्मा। तुमने छोड़ दिया अपने-आपको, कहा ठीक है। यह आत्मज्ञान है – अपने कर्मों को जानना, अपने विचारों को देखना कि यह जो विचार आ रहा है, यह कहाँ से आ रहा है। 

जैसे खाने के निवाले का पता चल सकता है न कि तुमने जो भोजन सामने रखा है, वह क्यों चुना है, वैसे ही अगर ग़ौर से देखो तो अपने सूक्ष्म कर्मों का अर्थात् विचारों का भी पता चल सकता है कि कहाँ से आ रहे हैं विचार —यही आत्मज्ञान है। 

और याद रखना आत्मज्ञान का मतलब यह नहीं होता कि तुम आत्मा को जान गए; आत्मा के ज्ञान को आत्मज्ञान नहीं कहते। आत्मज्ञान का बस यह मतलब है – अहंकार का ज्ञान। वास्तव में जब कर्ता परमात्मा होता है तो उसको जानने वाला भी कोई बचता नहीं है। जब भी तुम जान पाओगे तो यही जान पाओगे कि कर्ता या तो प्रकृति है या अहंकार है। 

मैं जो कर रहा हूँ, वह कहाँ से आ रहा है, यही जानना आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान भी श्रेष्ठतम तब है जब जो हो रहा है, उसको होने के क्षण में ही जान लिया जाए। करने को तुम यह भी कर सकते हो कि बीती घटना का अवलोकन करो और फिर तुम्हें पता चले कि जो तुमने करा, वह क्यों करा था। वह भी है आत्मज्ञान की ही एक श्रेणी, पर वह निचली श्रेणी हैं। उससे भी लाभ होगा, पर बहुत कम लाभ होगा। आत्मज्ञान से ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ तब होता है जब तत्क्षण आत्मज्ञान हो जाए। 

गुरुवार, 24 मार्च 2022

गुरुकृपा

गुरुकृपा कोई विशेष चीज़ होती नहीं, क्योंकि वो सदा है, सर्वत्र है। मनुष्य के लिए सत्य ही गुरु है और जीवन ही गुरुकृपा है। 

जीव इंद्रियों का ग़ुलाम है और इंद्रियों को कभी कुछ ऐसा दिखेगा ही नहीं जो सदैव और सर्वत्र हो। तुम्हारी आँखो ने कभी कुछ ऐसा देखा है जो सदा हो और हर जगह हो, कुछ देखा है? इंद्रियाँ तो उसी का अनुभव कर पाती हैं जो कभी-कभी और कहीं-कहीं हो। तो फिर जीव के लिए गुरुकृपा के विशिष्ट मायने होते हैं। विशिष्ट जीव के लिए गुरुकृपा भी विशिष्ट चीज़ हुई।


क्या है गुरुकृपा? 



गुरु का शब्द तुम्हारे सामने पड़ जाए, तुम पढ़ लो, ये गुरुकृपा है। 

गुरु की वाणी तुम्हारे कान में पड़ जाए। वो गुरुकृपा है।

हमारे लिए गुरुकृपा वही है जिसमें गुरु साकार होता जाए। क्योंकि हम –तुम निराकार नहीं, इसीलिए हमारे लिए गुरुकृपा भी निराकार रूप में बहुत अर्थ नहीं रखती। 

हमारी– तुम्हारी ज़िद के कारण कि मैं गुरुकृपा तभी मानूँगा जब गुरु साकार होकर मेरे सामने आए, गुरु को साकार होना पड़ा। तुमने कहा कि मैं जानूँगा ही तभी जब शिक्षा शब्द रुप में मेरे सामने आए, मैं समझूँगा ही तभी जब शब्दों में समझाओं तुम, तो गुरु को शब्द का उच्चारण करना पड़ा।

गुरु समाधिस्थ है, गुरु की प्रसुप्ति अति गहरी है, लेकिन तुम्हारा कहना है कि तुम सुनोगे ही तभी, समझोगे ही तभी जब गुरु चैतन्य रूप में समझाए, तो फिर शब्द आता है तुम्हारे सामने। सोता हुआ जग करके शब्द उच्चारित करता है, ओंकार की ध्वनि होती है, जगत प्रणवमय हो जाता है। जिन्हें समझना होता है, वो इतने में समझ लेते हैं। 

कई होते हैं जो कहते हैं, हमें अभी भी समझ में नहीं आया, तो गुरु उनके पीछे-पीछे और चलता है। वो कहता है कि अगर तुमको लिखे हुए शब्द से नहीं समझ में आता, तो आओ सामने बैठ करके वाणी सुन लो। ये तुम्हारे लिए और उच्चतर गुरुकृपा हुई। तुम्हारे लिए उच्चतर गुरुकृपा हुई और गुरु के लिए, समझ लो, और बोझ हो गया। पहले तो उसे सिर्फ़ उच्चारण करना था, अब वो सशरीर सामने बैठे और बोले। क्यों बोले? क्योंकि तुम्हारी ज़िद है कि तुम आमने-सामने बैठोगे, तभी तुम सुनोगे और समझोगे। 

गुरु अपने स्वभाव के विरूद्ध जा रहा है। गुरु का स्वभाव क्या है? मौन। और तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो बोले। गुरु का स्वभाव क्या है? समाधि। पर तुम उसे विवश कर रहे हो कि वो चैतन्य हो जाए। 

तो बहुत होते हैं जिनका काम इतने में बन जाता है, वो कहते हैं, गुरु के सामने बैठे, बातें सुनी, काम बन गया। कुछ होते हैं फिर जो इतने में भी नहीं मानते, वो कहते हैं, अभी तो कई इंद्रियाँ हैं जिन्हें गुरु का अनुभव नहीं हुआ; आँखो को हुआ, कान को हुआ, और तो हुआ ही नहीं। तो फिर उनको समझाने के लिए गुरु को विवश होकर उनके जीवन में उतरना पड़ता है। गुरु को वो सब करना पड़ता है जो गुरु के स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध है।

सत्य असंग होता है, लेकिन फिर शिष्य की ख़ातिर गुरु को देह का, जीव का संग करना पड़ता है। सत्य अनिकेत होता है, लेकिन शिष्य की ख़ातिर गुरु को निकेतन भी ग्रहण करना पड़ता है—अनिकेत माने जो किसी घर में नहीं रहता—शिष्य की ख़ातिर गुरु घरवाला भी बन जाता है। 

और गुरुकृपा का, तुम समझ लो, उत्कर्ष ही तब हो गया जब तुम गुरु को विचलित ही कर दो। ये बात सुनने में बड़ी अजीब लगेगी क्योंकि आत्मा तो अचल, अविचल होती है। सत्य का स्वभाव है अचलता, अकम्प, अडिग, अचल। ऐसा होता है सत्य। पर कई दफ़े तुम्हारी ज़िद होती है कि हम सुनेंगे ही तब जब गुरु भी हमारी ही तरह विचलित हो जाए, तब तुम्हारी ख़ातिर गुरु विचलित होकर भी दिखा देता है। यहाँ तक भी विचलित हो सकता है कि तुम्हारी पिटाई ही लगा दे। ये गुरुकृपा की पराकाष्ठा हो गई कि गुरु ने तुमको लगाए दो डंडे—क्योंकि सत्य तो सर्वथा अहिंसक होता है‌। 

तुम्हारी ख़ातिर अगर सत्य को डंडा उठा लेना पड़ा, तो ये गुरु के प्रेम का ऊँचे-से-ऊँचा प्रमाण है। इतना चाहता है वो तुमको कि तुम्हारे ख़ातिर उसने अपना स्वभाव भी त्याग दिया। ऐसे होती है गुरुकृपा।


गुरु-शिष्य का खेल ही विचित्र है। ऊपर से तो गुरु शिष्य को यही सीख देता है कि हम सिखा रहे हैं, तुम सीखो, और सीखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, लेकिन अंदर-ही-अंदर घटना उल्टी घट रही होती है। शिष्य में अगर इतनी सामर्थ्य ही होती कि वो ज़िम्मेदारीपूर्वक सीख सकता, तो वो शिष्य क्यों होता? 


ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति, पूजामूलं गुरुर्पदम्।

मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरूर्कृपा॥

ध्यान का मूल, गुरु की मूर्ति है।पूजा का मूल, गुरु के चरण कमल हैं।मंत्र का मूल, गुरु के शब्द हैं।मोक्ष का मूल, गुरु की कृपा है।

~(गुरुगीता, श्लोक ७६)

बुधवार, 16 मार्च 2022

अद्वैत है या द्वैत है?

 आत्मा/अनुभवकर्ता/ ब्रह्म/ परमात्मा हर उपाधि का खंडन करता है। आत्मा इतनी स्वच्छंद, इतनी अनिर्वचनीय, इतनी अकल्पनीय है कि तुम उसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। तुम उसके बारे में जो कुछ भी कहोगे, वह कभी-न-कभी उल्टा जरुर जाएगा। वह किसी एक गुण से आबद्ध होता ही नहीं, उसके साथ तुम कोई एक उपाधि, विशेषण जोड़ सकते ही नहीं। 

आत्मा की इस अनिर्वचनीयता का एक परिणाम यह भी है कि तुम यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा मुक्त है, क्योंकि अगर तुमने आत्मा के लिए अगर यह भी कह दिया कि आत्मा सदैव मुक्त है, तो यह आत्मा के लिए बंधन हो गया। आत्मा कहती है, जी, यह तुमने बड़ी बंदिश लगा दी हम पर कि हमें सदा मुक्त ही रहना है। हम बादशाहों के बादशाह हैं, हम इतने बड़े बादशाह हैं कि हम कभी-भी विरासत त्याग सकते हैं, हमारी मर्ज़ी। और हम इतने ज़्यादा मुक्त हैं कि कभी-भी हम स्वेच्छा से बंधन भी चुन सकते हैं। 

यह आत्मा की अजीब कलाकारी है कि वह कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ हो जाती है और जो हो जाती है, उसका विपरीत भी हो जाती है। अगर आत्मा इतनी ही मुक्त होती कि मुक्त रहना उसके लिए एक बाध्यता हो जाती, तो फिर वह मुक्त कहाँ है? तो यह आत्मा की परम मुक्ति का सबूत है कि वह बंधन भी चुन लेती है।

अहम् और क्या है? आत्मा का चुनाव, आत्मा का खिलवाड़। आत्मा अपने ही साथ खेल रही है आँख-मिचौली। ख़ुद ही अपनी आँखें बंद कर ली हैं और ख़ुद ही से टकरा-टकराकर ठोकरें खा रही है, ख़ुद ही दु:ख भोग रही है अपनी ही तलाश में और फिर ख़ुद ही गुरु बनकर आ जाएगी अपना ही दु:ख दूर करने। ऐसी परम स्वाधीनता है उसकी।

यह बात हमारी समझ में ही नहीं आएगी, क्योंकि हम तो गुणों पर, ढर्रों पर, क़ायदों पर चलने के क़ायल हैं। इसको हम कह देते हैं, “यह बड़ा गुणवान है,” इसको हम कह देते हैं कि “यह बड़ा बेईमान है।” आत्मा ऐसी है जो निर्गुण होते हुए भी कभी गुणवान है और कभी बेईमान है। है निर्गुण, पर हर तरह के गुण दिखा देती है। 

अब तुम परेशान हो कि जब निर्गुण है, तो उसे गुण दिखाने की ज़रूरत क्या है? अरे, ज़रूरत पर तुम चलते हो, ज़रूरत पर चलना छोटे लोगों का काम है। तो दुनिया भर के हम सब छोटे लोग ज़रूरतों पर चलते हैं, आत्मा क्रीड़ा करती है। आत्मा खिलाड़ी है, आत्मा नर्तकी है। किसके ऊपर नाचती है? अपने ऊपर। किसको दिखा-दिखाकर नाचती है? ख़ुद को ही।


अब बताओ, यह अद्वैत है या द्वैत है? 



कुछ पक्का नहीं, क्योंकि दो तो हैं ही – एक द्रष्टा, एक दृश्य, पर यह भी बात पक्की है कि जो दृष्टा है, वही दृश्य है। तो अब बोलो, दो  कि एक ?

अब  "परमात्मा जब इतना दयावान, न्यायवान, कृपावान है तो दुनिया में इतना दु:ख क्यों है, मृत्यु क्यों है, अन्याय और अत्याचार क्यों है?" 

परमात्मा न दयावान है, न करुणावान है, न हैवान है, न भगवान है; परमात्मा तो निर्गुण है। चूँकि वह निर्गुण है, इसीलिए सारे गुणों का अधिकार उसमें निहित है। सारे गुणों से खेलने की लीला उसमें निहित है। सद्गुण, अपगुण, तुम्हें चाहे जो नाम देना हो गुणों को, तुम्हारी मर्ज़ी। दोष बोल दो, दुर्गुण बोल दो, वह सब कुछ हो जाता है। वह न होता, तो दोष-दुर्गुण, वृत्ति-विचार भी कहाँ से होते? 

रविवार, 6 मार्च 2022

अहम या वहम

 अहम या अहंकार क्यों है? क्यों बढ़ता ही चला जाता है?

                         जीने की इच्छा ही अहंता है।

     अहम् का सम्बन्ध ‘घमण्ड’ इत्यादि से बहुत ज़्यादा नहीं है। अहम् का सम्बन्ध भीतर जो ‘मैं’ बैठा हुआ है उससे है। वो लचीला हो तो भी अहम् है; वो अकड़ू हो, तो भी अहम् है; वो निर्भयता दिखाए, गरजे, तो भी अहम् है; वो चू-चू करे और सिकुड़ जाए, तो भी अहम् है।

     और ये बढ़ता जाता है क्योंकि हम उसको अहंकार नहीं बोलते, हम उसको 'मैं' बोलना शुरू कर देते हैं। 

     मानो हमारे हाथ पर गंदगी लगी हो और हमारी बुद्धि कह रही है कि हमारा हाथ ही है, अहंकार का ऐसा ही है। हम उससे जुड़ गए हैं नाहक, और ऐसा जुड़ गए हैं कि गंदगी को गंदगी बोलना भूल गए हैं। कहते हैं, "ये तो मेरा हाथ ही है"। उसे कोई बाहरी चीज़ समझते तो हमने उसे कब का छोड़ दिया होता। उसे हम बाहरी समझते नहीं। हमने उसे अपना नाम दे दिया है। 

     और अब अहंकार से अलग कोई अस्तित्व जान नहीं पड़ता। हम कहते ही नहीं हो कि हाथ है, हाथ से मैल उतर जाएगा, तो भी हाथ तो बचा ही रहेगा? हमे लगता है कि बात कहीं प्याज़ के छिलकों जैसी न हो कि एक छिलका उतारा तो दूसरा मिला, फिर तीसरा उतारा, और सारे छिलके उतार दिए तो फिर कुछ बचा ही नहीं। डर हमको बिल्कुल यही है कि परत-दर-परत हम अहंकार ही हो तो, और अगर सारी परतें अहंकार की उतार दीं तो हम तो गायब हो जाएंगे। तो फिर ठीक है "अगर खुद बचे रहना है तो अहंकार को भी बचाए रखो"। 

     हम परत-दर-परत किसी न किसी चीज़ से जुड़े हुए हैं। अपने-आपको उससे जोड़कर ही देख पाते हैं। और हमें लगता है कि जिससे हम जुड़े हुए हैं, अगर वो हटा तो सिर्फ वो नहीं हटेगा, हम भी हट जाएंगेे।

इसलिए तुम उसे हटने नहीं देते जिससे तुम जुड़े हुए हो। इसी को अहंकार कहते हैं। 

     देख सकते हैं कि हमारा अहंकार अपूर्णता से उठता है, हमारा अहंकार –अपूर्ण अहंकार है, इसलिए वो जुड़ना चाहता है। पूर्ण अहंकार वो होता है जिसे जुड़ने की ज़रूरत नहीं। अहंकार खराब नहीं होता, अपूर्ण अहंकार खराब होता है। वो कहता है, हर चीज़ बचा के रखो क्योंकि हर चीज़ से तुम्हारा कोई नाता है, जैसे कि उस चीज़ के बिना तुम बचोगे ही नहीं। 

अहंकार जोड़ –जोड़ कर जीवन को बोझ बना देता है। अहंकार जितना सघन होगा, जीवन उतना भारी होगा। 

     अब ये भी देख लें, किसी चीज़ की कोई इच्छा नहीं है कि हमारे साथ जुड़ी रहे। प्रमाण ये है कि जब वो चीज़ छूटती है तो वो चीज़ नहीं रोती, हम रोते हैं। हमारी/तुम्हारी इज़्ज़त छूटी, इज़्ज़त रोती है या हम/तुम रोते हैं? हम ही पीछे पड़े हुए थे इज़्ज़त के और हमारी ज़िंदगी में जो चैतन्य वस्तुएँ भी हैं—लोग, रिश्ते-नाते—यकीन मानो, जिस हद तक हमने उन्हें अहंकारवश पकड़ रखा है, हमसे मुक्त होकर वो आज़ादी ही मनाएगें। हम रो लेंगे, वो आज़ादी मनाएगें।  

     अहंकार सत्य/तथ्य हो नहीं सकता क्योंकि अस्तित्व में कुछ भी दूसरे पर ऐसे नहीं आश्रित है कि उसकी हस्ती ही दूसरे से उठती हो। अहंकार अकेला है जिसका दावा है कि उसकी हस्ती दूसरे के बिना है ही नहीं। साथ-ही-साथ अहंकार ये भी सुनिश्चित करता है कि वो दूसरे से कभी पूरी तरह एक नहीं होगा। अहम को जुड़ना पसंद हैं लेकिन मिटना; विलय पसंद नहीं।

      जैसे दूध और पानी, ये मिले, कि अब हम बता ही नहीं पाएंगे कि दूध कहाँ और पानी कहाँ। लेकिन लोहे और चुंबक को हम कभी भी अलग कर सकते हो। अहंकार जुड़ना जानता है, विलय होना नहीं जानता है।  

     और मिल गया कोई ऐसा जिसका प्रभाव कुछ ऐसा हो, जिसमें घुलनशीलता कुछ ऐसी हो कि वो हमें अपने में सन्निहित कर लेता हो, तो हम डर जाते हैं। हम उसके साथ होना नहीं चाहते, बल्कि हम उसके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। हम कहते हैं, "देखो, तुम्हारे साथ तो चलेंगे लेकिन तुम में समाकर मिट नहीं जाएँगे"।

     जब भी क्षण आया मिटने का, उस क्षण में हम बिल्कुल सजग रहते हैं । हम मिटना नहीं चाहते। हम प्रेम में भी अपनी अकड़ पूरी बनाए रखते हैं। हम कहते हैं, "देखो, हमारा सब अलग-अलग ही चलेगा, अटैचमेंट चलेगा लेकिन पूरा। अटैचमेंट होना चाहिए।" अटैचमेंट न हो तो गुस्सा आता है, कहेंगे "हम से जुड़ो न।" मतलब 'हम' भी कायम हैं, 'तुम' भी कायम हो, लेकिन जुड़े हुए हैं। वजूद दोनों का है, हस्ती दोनों की है, लेकिन जुड़े हुए हैं। जैसे दो हाथ जब जुड़ते हैं तो दोनों हाथ कायम हैं, और साथ-ही-साथ ये भ्रम भी हो रहा है जैसे कि जुड़ गए हों। 

     अपनी हस्ती को बचाए रखने की इतनी चाहत मत रखो। ये सुरक्षा की माँग ही अहंकार है। 

अंत में– अहंकार तो रहेगा। समस्या अहंकार नहीं है, समस्या है ‘अपूर्ण अहंकार’। अहंकार पूर्ण हो गया तो आत्मा हो गया।

और पूर्ण कैसे होगा? 

पता करिए। 🙏

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...