रविवार, 17 अप्रैल 2022

🌼आत्मज्ञान🌼

 जीवन आपको व्यस्त रखे है, उलझाए हुए है, जीवन लगातार गतिमान है। कुछ-न-कुछ नया लगातार आपके सामने आ ही रहा है। कोई-न-कोई चुनौती आपके सामने है। कोई पल ऐसा नहीं है जिसने आपको छुट्टी दे दी हो कि अभी कोई दायित्व नहीं। हमेशा कोई-न-कोई बात अधूरी है, कुछ-न-कुछ समस्या बनी ही हुई है। 

तो नतीजा यह है कि घटनाएँ लगातार घट रही है और आप उन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए विवश हैं। क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं आप, आपको यह समझने के लिए अलग से वक़्त नहीं मिल रहा। आप सभी के जीवन में ऐसे दिन आए हैं न जब एक के बाद एक चुनौती या समस्या या काम खड़ा होता रहता है? और कई बार तो एक ही समय पर कई लंबित काम सामने होते हैं, ऐसा हुआ है? 

और जो कुछ हो रहा है, वह बड़े अनायोजित तरीके से हो रहा है। आपको पहले से पता नहीं था कि दोपहर दो बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी और दोपहर साढ़े तीन बजे क्या स्थिति सामने आ जाएगी, आप नहीं जानते थे। बस एक के बाद एक लगातार प्रवाह में स्थितियाँ बदलती जा रही हैं और आप आबद्ध हैं उनमें से हर स्थिति को जवाब देने के लिए, कोई प्रत्युत्तर देने के लिए, प्रतिक्रिया करने के लिए। तो जीवन हमारा ऐसे बीतता है। क्या हुआ, किसने किया, अच्छा किया, कि बुरा किया, जो हो रहा है, वह कैसे हो रहा है, इस पर हम ग़ौर नहीं कर पाते। 

आत्मज्ञान का मतलब होता है ठीक तब जब जीवन की गति चल रही है, आप इस बात के प्रति जागरूक हो जाएँ कि आप बिना उस गति को रोके भी उस गति से बाहर हो सकते हैं। प्रकृतिगत गति चलती रहती है और आप उस गति के मध्य भी शून्य और शांत हो सकते हैं। जब आप उस गतिशीलता से दूर होकर, बाहर होकर खड़े हो जाते हैं तो आपको दिखाई देने लग जाता है कि यह चल क्या रहा है—चलना माने गतिमान होना—यह ग़लती किसकी है, कौन कर रहा है, यह हरकतें कौन कर रहा है, यह काम पर किसने डाला —यह आत्मज्ञान है। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ चलती हुई चीज़ पर नज़र रखना। क्या चल रहा है? प्रकृति का सतत् बहाव चल रहा है। आपको नज़र रखनी है। यह क्या हो गया उस बहाव में? अभी-अभी मुँह से शब्द निकल गया, उस शब्द के पीछे कौन था? शब्द के पीछे तीन हो सकते हैं – प्रकृति, अहम्, परमात्मा। आत्मज्ञान का मतलब है पता हो कि कहीं पहले दो तो नहीं थे। पहले दो में भी अगर पहला था तो कोई बात नहीं। आपके मुँह से ध्वनि निकले तो वह आपकी डकार हो सकती है न? अगर आपके मुँह से डकार निकली है, तो कर्ता कौन है? प्रकृति। 

आपके पेट में भोजन पक रहा है, इसमें आपका कोई संकल्प नहीं शामिल है; यूँ ही हो रहा है। तो इस कर्म का कर्ता कौन है? प्रकृति। आपके पेट में भोजन पच रहा है, अभी कर्ता कौन है? प्रकृति। जिस चीज़ की कर्ता प्रकृति हैं, हमने जान लिया कि उसकी कर्ता प्रकृति है। और आप भोजन ग्रहण क्या कर रहे हैं, इसका कर्ता कौन है? इसका कर्ता अहम् हो सकता है, अधिकांशत: अहम् ही होता है। 

बहुत कम लोग होते हैं जो प्रकृति के अनुसार भोजन ग्रहण करें। ज़्यादातर लोग भोजन ग्रहण करते हैं अहम् के अनुसार। और ऐसे लोग जो परमात्मा के अनुसार भोजन ग्रहण करें, वो और भी कम होते हैं। 

आत्मज्ञान का मतलब हुआ कि आपको साफ़ पता हो कि कर्म के पीछे कौन है। यह अभी जो आपने निवाला भीतर डाला, वह शरीर की माँग थी? अगर शरीर की माँग थी, तो कर्ता कौन हुआ? प्रकृति। वह अहम् की माँग थी अगर, तो कर्ता हुआ अहम्—या कि ‘रूखी सूखी खाई के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी ना ललचावे जी’, अब कर्ता कौन है? परमात्मा। यह आत्मज्ञान है। मैं जो कर रहा हूँ, उसके पीछे कर्ता कौन है, यह पता कर लो —यही आत्मज्ञान है। 

बहुत गड़बड़ बात है अगर तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है अहंकार। उससे श्रेष्ठ बात है कि तुम जो कर रहे हो, उसकी कर्ता है प्रकृति। श्रेष्ठतम बात है जब तुम जो कर रहे हो, उसका कर्ता है परमात्मा। तुमने छोड़ दिया अपने-आपको, कहा ठीक है। यह आत्मज्ञान है – अपने कर्मों को जानना, अपने विचारों को देखना कि यह जो विचार आ रहा है, यह कहाँ से आ रहा है। 

जैसे खाने के निवाले का पता चल सकता है न कि तुमने जो भोजन सामने रखा है, वह क्यों चुना है, वैसे ही अगर ग़ौर से देखो तो अपने सूक्ष्म कर्मों का अर्थात् विचारों का भी पता चल सकता है कि कहाँ से आ रहे हैं विचार —यही आत्मज्ञान है। 

और याद रखना आत्मज्ञान का मतलब यह नहीं होता कि तुम आत्मा को जान गए; आत्मा के ज्ञान को आत्मज्ञान नहीं कहते। आत्मज्ञान का बस यह मतलब है – अहंकार का ज्ञान। वास्तव में जब कर्ता परमात्मा होता है तो उसको जानने वाला भी कोई बचता नहीं है। जब भी तुम जान पाओगे तो यही जान पाओगे कि कर्ता या तो प्रकृति है या अहंकार है। 

मैं जो कर रहा हूँ, वह कहाँ से आ रहा है, यही जानना आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान भी श्रेष्ठतम तब है जब जो हो रहा है, उसको होने के क्षण में ही जान लिया जाए। करने को तुम यह भी कर सकते हो कि बीती घटना का अवलोकन करो और फिर तुम्हें पता चले कि जो तुमने करा, वह क्यों करा था। वह भी है आत्मज्ञान की ही एक श्रेणी, पर वह निचली श्रेणी हैं। उससे भी लाभ होगा, पर बहुत कम लाभ होगा। आत्मज्ञान से ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ तब होता है जब तत्क्षण आत्मज्ञान हो जाए। 

नर्क की आदत

वृत्ति को और छोटा करते हैं - आदत से शुरू करते हैं। व्यक्ति अधिकांशत अपनी आदत का गुलाम होता है अपनी कल्पना में हम खुद को आज़ाद कहते हैं, पर क...